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मीडिया की मानसिकता: जयरा वासिम को जितना समर्थन मिला उतना अखलाख, मोहसिन, मिन्हाज और नजीब को क्यों नहीं ?

मोहम्मद शमी से लेकर ज़ायरा वसीम के मुद्दे पर जिस तरह से भारतीय मीडिया और सोशल मीडिया यूजर्स भड़के हैं क्या ठीक उसी तरह से मुसलमानों से जुड़ी किसी अन्य समस्या के वक्त यह समर्थन दिखा आपको? 

मोहम्मद शमी का मसला कुछ कट्टरपंथी फेसबुक यूजर्स जिनकी आज तक किसी मीडिया समूह या फिर व्यक्तिगत स्तर पर पहचान नहीं हो सकी, न उनके घरों का पता न ही उनके शैक्षणिक योग्यता या सामाजिक पहलुओं की कोई जानकारी हमें है फिर भी हमने कई दिनों तक भारतीय क्रिकेटर मोहम्मद शमी पर ख़बर चलते हुए देखी। क्या मोहम्मद शमी की बीवी के पहनावे पर आज़म खान अथवा असदउद्दीन ओवैसी ने कुछ गलतबयानी की? क्या मोहम्मद शमी की बीवी के पहनावे पर किसी मुस्लिम धार्मिक संगठन ने आपत्ति दर्ज करवाई? नहीं। फिर वे इंडीविजुअल कौन हैं जिनकी टिप्पणियों पर मुख्यधारा की मीडिया इस कदर भड़क जाती है और पूरे भारत के मुसलमानों तथा इस्लाम को संदेह के घेरे में डाल देती है। 
क्या हाईस्कूल पास और खाड़ी के किसी देश में मजदूरी कर रहे मुसलमान, इलाहाबाद या कोटा के कोचिंग सेंटर में रह कर पढ़ रहे किसी युवा, दिल्ली या फिर मुंबई अथवा बेंगलुरू की किसी कंपनी में नौ से पांच बजे की नौकरी करने वाले इंसान की फेसबुकिया टिप्पणी इतनी गंभीर और वज़नदार है कि उस पर मीडिया को बहस-मुबाहिसा करना चाहिए? न तो इन टिप्पणियों को करने वाला किसी संगठन का पदाधिकारी है, न ही वे संगठित गिरोह बना कर किसी पर साईबर बुलिंग करते हैं। फिर ऐसा क्यों होता है कि भारत का तथाकथित प्रगतिशील धड़ा भी उनकी आलोचना के बहाने उन्हें भी इसमें घसीट लेता है जिसका इससे दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं।

Jabong CPV

कश्मीर मूल की बालिवुड एक्ट्रेस ज़ायरा वसीम हाल ही में पांच महीनों से सुलग रहे जम्मू कश्मीर पहुंची तो मुख्यमंत्री के बुलावे पर सीएम हाउस चली गई्। ज़ायरा ने सीएम से मुलाकात की तो सीएम ने उन्हें कश्मीर का रोल मॉडल बताया, इस बात से सेप्रेटिस्ट नाराज़ हो गए। अलगाववादी सरकार से हमेशा नाराज़ रहे हैं, भारत विरोधी खेमा वहां पर महबूबा मुफ्ती की शासन प्रणाली से हमेशा से नाराज़ रहा। दंगल में अपने अभिनय की छाप छोड़ने वाली ज़ायरा को कश्मीर का रोल मॉडल बनाने की हिमायती मैं भी नहीं हूं। किसी भी फिल्मी कलाकार को यह हक़ नहीं दिया जाना चाहिए, रोल मॉडल तो आम लोग अपने पसंद न पसंद से चुना करते हैं, अपनाया करते हैं। ज़ायरा निसंदेह मेहनती और क्षमता से भरी सोलह साल की बच्ची हैं परंतु पुलिस और फौज की बर्बरता से जूझ रहे घाटी के लोगों के लिए उनकी काबिलियत उतनी ही अहमियत रखती है जितनी की शेष भारत में किसी आम कश्मीरी की। अलगाववादी हमेशा से भारत को नापसंद करते रहे हैं, भारत में आकर रोजगार तलाशना रहा हो या सरकारी रहम ओ करम पर जीवन बिताना, उन्होंने एक सूर में इस बात को नकारा है। हमें इसके पीछे धार्मिक कारण खोज कर निकाल लाने के बजाए राजनीतिक क्रूरता को ज़िम्मेदार मानना होगा। ज़ायरा वसीम का विरोध उसी राजनीतिक नफे नुकसान के दायरे में आता है न की किसी मजहबी किताब के हिस्से में।

Jabong CPV

अलगाववादियों की परेशानी हर उस शख्स से है जिसने भारत की तरफ रूख किया, भारत ने हमेशा से कश्मीरियों पर जो अत्याचार किए यह उसके उपरांत होना ही था। कोई दूध का धुला नहीं है। हो सकता है वर्तमान में जो ट्रेंड महबूबा मुफ्ती ने ज़ायरा से मुलाकात के बाद देश भर में बनाया है वह कश्मीर पर पिछले पांच महीनों के अन्याय और संघर्ष की परिभाषा ही बदल दे। मुख्यधारा की मीडिया कश्मीर को जानबूझ कर नहीं समझती परंतु एक उम्मीद सोशल मीडिया और डिज़ीटल प्लेटफॉर्म से जगी है। यह उम्मीद लिबरल, प्रोग्रेसिव ख्याल के यूजर्स के आगे आने के बाद ही बनी है परंतु ज़ायरा के मुद्दे पर सबसे अधिक डांवाडोल स्थिती उनकी ही है, वे सब ज़ायरा के विरोध के पीछे धार्मिक एंगल तलाश चुके हैं किसी ने यह नहीं लिखा की महबूबा मुफ्ती से मुलाकात से पहले ज़ायरा का आज तक विरोध नहीं हुआ। दंगल बन कर खत्म होने के कगार पर है यदि तथाकथित कट्टरपंथियों को ज़ायरा को मजहबी धरातल पर खींचना होता तो वे यह काम बहुत पहले कर चुके होते परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। मुख्यमंत्री से मुलाकात और फिर सीएम द्वारा ज़ायरा को राजनीति में घसीटने की शुरूआत करना सबसे बड़ी साज़िश थी। कश्मीरियों का बड़ा वर्ग वर्तमान सरकार की अन्याय भरी नीतियों का प्रतिरोध कर रहा है, ऐसे में सरकार के इशारों पर किसी को अपना रोल मॉडल मानने की बात जले पर नमक छिड़कने जैसी ही है। सिविल सेवा परिक्षा के सेकंड टॉपर अतहर अामिर खान को भी यदि सरकार कश्मीर का रोड मॉडल बनाना चाहेगी असल में थोपना चाहेगी तो लोग विरोध के सूर निकालेंगे ही। अतहर हो या फिर ज़ायरा, इनके विरोध की असल वजह सरकारी हस्तक्षेप है न कि धर्म। परंतु मीडिया जो दिखा दे उसके आगे की सोच पाना जैसे हमने त्याग ही दिया है। 
ज़ायरा वसीम अभिनेत्री हैं, परंतु कश्मीर में पिछले पांच महीने के संघर्ष में मारे गए सैकड़ों युवक-युवतियां उन अलगाववादियों के रियल हीरों हैं यही कश्मीर का सच है। कश्मीर ही क्यों, यह सच तो हर एक समाज का है। जिन पर बीतती है उन्हीं को एहसास होता है, तो उन्हीं को तय करने दीजिए की उनका रोल मॉडल कौन होगा। या फिर ऐसा माहौल मुहैया करवाइए कि ज़ायरा वसीम या फिर कोई और कश्मीरी युवा जो भारत की व्यवस्था में शामिल हो तो वह कश्मीरियों का रोल मॉडल बन सके। 
बाक़ि मीडिया मुसलमानों की बुराई और उन्हें शर्मिंदा करने का मौका कब छोड़ती है? पुणे के मोहसिन शेख के हत्यारों पर मुंबई हाईकोर्ट का फैसला इस वक्त देश की सुर्खियों में होना चाहिए था परंतु मीडिया मैनेजरों ने उसे नेपथ्य में पहुंचा दिया। खैर, मेरे रोल मॉडल नरेंद्र मोदी जी हैं।
-मोहम्मद अनस -



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