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भारत माता जार-बेजार रो रही है



( 'भारत माता की जय' का नारा संघ परिवार , हिन्दू राष्ट्रवादियों और भाजपा सरकार का वैसा ही खतरनाक हथियार है, जैसा 'राम मंदिर' , या 'गोमाता' अभियान रहा है - कई अर्थों में उससे ज्यादा असर वाला साम्प्रदायिक हथकंडा . प्रेमकुमार कुमार मणि का यह लेख 'भारत माता'  सहित सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को प्रिय 'राष्ट्रवाद  के दूसरे प्रतीकों 'पर लिखा गया मुझे सबसे सुचिंतित और महत्वपूर्ण दिखता है - हिन्दी और अंग्रेजी में इस विषय पर एक दर्जन से अधिक लेखों के आधार पर यह निष्कर्ष है , जो मैंने पढ़ा है , इन दिनों .) 
फणीश्वरनाथ रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’में एक पात्र है बावन दास, डेढ़ हाथ का सुराजी, गांधीजी के श्राद्ध वे दिन कालाबाजारी के खिलाफ अकेले जूझता हुआ बैलगाड़ियों के काफिले से कुचल दिया जाता है और भारत-पाकिस्तान (स्वतंत्र बंगलादेश )को बाँटने वाली एक नदी के किनारे के पेड़ पर चेथारिया पीर बन कर रह जाता है. उपन्यास का अंत ही होता है ‘कलीमुद्दीनपुर घाट पर चेथारिया पीर में किसी ने मन्नत करके एक चिथड़ा और लटका दिया.’ रेणु का यह उपन्यास एक बड़ी ट्रेजडी, जिसकी तरफ हमारा देश जा रहा हैं, को  इंगित करता है. इसलिए यह कृति आज भी उतनी ही प्रांसगिक है, जितनी लिखे जाने के समय. हम कह सकते हैं कि उस उपन्यास ने जिस ट्रैजेडी की ओर तब इशारा किया था,  उसके बीच आज हम खड़े हैं,  इसलिए यह तब से कहीं अधिक आज प्रासंगिक है.  लेकिन मैं उक्त उपन्यास पर चर्चा करने के लिए आपको इस आमंत्रित नहीं कर रहा हूँ. मैं तो डेढ़ हाथ के उस सुराजी बावनदास के एक मर्मस्पर्शी संवाद की और आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ.  बावनदास कई प्रसंगों में कई बार कहता हैं ‘भारत माता जार बेजार रो रही है.’ भारत को ब्रिटिश गुलामी से आजादी मिल गयी है. ‘





मैला आँचल’ के केन्द्रीय गाँव मेरीगंज में राजनीतिक –सामाजिक परिवर्तन अंगड़ाईयाँ ले रहे हैं.  देश का मुख्य राजनीतिक लक्ष्य आजादी हासिल होते ही अन्य कई तरह के सवाल खड़े होने लगे हैं वंचित-उत्पीडित समाजों के लोग चाहते हैं कि इस आजाद राजनीतिक वातावरण में उनकी आकांक्षायों भी अंगडाइयां लें.  उन्हें भी खुल कर सांस लेने का अवसर मिले.  हजारो साल से वह जो सामन्ती-पुरोहिती गुलामी झेल रहे हैं उससे मुक्त हों . भूखमरी, अशिक्षा, बीमारी ख़त्म हो.  इन सबको लेकर गाँवों में उत्साह है, लेकिन दूसरी तरफ जमींदार,पुरोहित, पूंजीपति और लूट खसोट कर संपत्ति हासिल करने वाले भ्रष्ट-दलाल –कालाबाजारिये भी सक्रिय हैं.  मेरीगंज के तीन सुराजी सेनानी थे- बावनदास ,बालदेव और चुन्नीगोसाई.  आजादी  के लिए सब मिला कर दस बार जेल जाने वाला चुन्नीगोसाई सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो जाता है, क्योंकि उसे लगता है कि अंग्रजों के खिलाफ लड़ाई ख़त्म हो गई और अब जमींदारों पूंजीपतियों से लड़ाई लडनी है. यह लड़ाई कोंग्रेस नहीं लड़ सकती,

सोशलिस्ट पार्टी ही लड़ सकती है. बालदेव अपने गाँव में ही जनवितरण प्रणाली से जुड़ कर परची काटने लगे हैं और सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार में जाने –अनजाने धंसने लगे हैं. लेकिन व्याकुल बैचेन बावनदास की पीड़ा कहीं गहन है. चारों और लालच लूट और भ्रष्टाचार को देख कर वह बैचेन है, और कहता है-भारत माता जार-बेजार रो रही है.  व्याकुल बैचेन सुराजी बावनदास की भारतमाता रो रही है. सामान्य साधारण रुलाई  नहीं हैं उसकी, वह जार बेजार रो रही है. बावनदास माता की रुलाई देख कर चुप कैसे रह सकता है.  अपने गांधी बाबा के श्राद्ध के दिन ही वह भ्रष्टाचार से लड़ता हुआ कुचला जाता है,  मारा जाता है.  अपनी भारतमाता और अपने गांधी बाबा को वह अपनी शहादत की श्रद्धांजलि देता है. लेकिन आज जो भारतमाता को लेकर कोहराम कर रहे हैं, वे कौन से लोग हैं? कैसी है इनकी भारतमाता और कैसा है इनका कोहराम. क्या बालदेव की भारतमाता और इनकी भारतमाता एक है, और यदि दो है, तो क्या इन दोनों माताओं में कोई सम्बन्ध भी है या नहीं? ये सवाल मेरे मन में बार बार उठते रहे हैं.



प्रीति गुलाटी कॉक्स की ( पेंटिंग)   काउंटरकरेंट्स से साभार 

मैं ऐतिहासिक दस्तावेजों और उत्खननों में न जाकर सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि राष्ट्र, राष्ट्रवाद को एक मूर्त रूप, भारतमाता में परिवर्तित हो जाने की पूरी अवधारणा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति संग्राम के दरम्यान व्यक्तित्व और समाज सक्रिय भावुक आवेगों से घिरा होता है, ऐसे में उसकी भावुकता का अनेक रूपों में मूर्त होना संभव होता है. वह नए देवता, कविता राग और यहाँ तक कि नारों में मूर्त होता है. हमें इन तमाम स्थितियों का अध्ययन विश्लेषण करना चाहिए और समझना चाहिए किन -किन ख़ास परिस्थितियों में इनका सृजन हुआ था, जो लोग हिंदुत्व को लेकर रात-दिन छाती कूटते हैं उन्हें भी क्षण भर रुक कर अपनी परम्परा पर विमर्श करना चाहिए.  हिंदुत्व की प्रतिमा गढ़ने वाली परम्परा ही उसके सही समय पर विसर्जन की भी शिक्षा देती है. जब प्रतिमा का समय से विसर्जन नही होता तब ‘अशुभ’ की आशंका होती है. भारतमाता की प्रतिमा हमारे देश में उस कुलीन हिन्दू समाज ने निर्मित की, जिसकी अस्मिता को ब्रिटिश हुकूमत लगातार कुचल रही थी.  उसके पास कोई नायक नहीं था , कोई नेता नहीं था.  नायक-नेता विहीन समाज प्राय: देवी देवताओं का सृजन करता है.  ऐसे ही दौर में जब स्वतंत्रता आन्दोलन अपने प्राक्काल में था तब भारतमाता की समन्वित प्रतिमा उठ खड़ी हुई. चूकी इसके निर्माता बड़े लोग थे, कुलीन हिन्दू लोग थे, 

इसलिए भारतमाता की प्रतिमा उनकी अन्य देवियों- वैष्णो या दुर्गा-की भांति बाघ –शेर पर बैठी, कर्पूर गौरा, स्वस्थ- सती और दो मुहें केसरिया ध्वज को धारण की हुई उभरीं.  इससे कम धज वाली किसी माता की जय करने में कुलीनों की तौहीन भी होती. राष्ट्रीय आन्दोलन के अगुआ और कर्ता धर्ता वहीं थे,  इसलिए तब इस पर कुछ ख़ास विचार नहीं हुआ, विरोध भी नहीं हुआ. १९२० के बाद जैसे ही गांधी के रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन को एक सर्वमान्य नेता मिला,  भारतमाता का महत्त्व कम होने लगा अथवा भारतमाता और गांधी बाबा एक रूप होने लगे.  दूरदराज के गाँवों तक में गांधी इसलिए लोकप्रिय होने लगे कि उन्होंने अपनी धज को किसान मजूर से एकरूप कर लिया. गांधी अवतारी पुरुष बन गए और बहुतों के लिए भारतमाता उनमें समाहित हो गई. हमारे अनेक राष्ट्रीय नेताओं को इन देवी देवतावाद की कमजोरियों  का अहसास था, लेकिन वे चुप रहे, क्योंकि देश की बहुसंख्यक जनता अशिक्षित थी और बड़े बड़े राजनीतिक मसलों को धार्मिकता के रैपर में ही स्वीकार सकती थी. क्यूबा में फिदेलकास्त्रो जैसे नेता ने भी कुछ धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया था , जैसे क्राइस्ट को बन्दुक उठाये दिखाना आदि. यह उतना बुरा नहीं होता है, यदि एक समय तक ही इसका उपयोग हो. 
आजादी मिलने के साथ ही गांधी की सलाह थी कि कांग्रेस को भंग कर दिया जाये. 




इसकी व्याख्या लोगों ने अनेक रूपों में की है. मुझे बार-बार यही प्रतीत हुआ है कि गांधी को लगा था कि जिन उपकरणों, औजारों से राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम लड़ा गया, उन्हीं औजारों-उपकरणों से राष्ट्र निर्माण नहीं किया जा सकता. कांग्रेस राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम का मंच था. वह तो प्रतीक था. उसके साथ अन्य औजारों को भी अब दरकिनार करना था. इसलिए राष्ट्रनिर्माण के लिए उन्होंने अपने दो वैचारिक विरोधियों, नेहरू और आंबेडकर को सामने किया. पटेल, राजाजी, राजेंद्र प्रसाद जैसे उनके पटुशिष्यों को पता नहीं कैसा महसूस हुआ होगा. लेकिन गांधी जानते थे कि उनकी दक्षिणपंथी सोच भारत को किस ठिकाने ले जायेगी. नेहरू की आत्मकथा और आम्बेडकर की कांग्रेस व गांधी को लेकर एक किताब का एक-एक पूरा अध्याय गांधी वाद की तीखी आलोचना है. हकीकत तो यह हैं कि नेहरु की आलोचना आम्बेडकर से भी ज्यादा तीखी है, लेकिन गांधी ने राजगोपालाचारी या पटेल के बजाय नेहरू को अपना उतराधिकारी बताया और संविधान  का प्रारूप तय करने की जिम्मेदारी डॉक्टर आम्बेडकर को देने के लिए लोगों को तैयार किया. सविधान सभा ने देश का जो झंडा या चिह्न तय किया, उसमें न भारतमाता रही, न गांधी का चरखा.

हिन्दूवादियों की चलती तो राष्ट्रीय चिह्न में स्वस्तिक का निशान तय कर देते, जो हिटलर की आर्य अस्मिता का प्रतीक था. बिहार में पटेल के शिष्य सरकार पर हावी थे, और बिहार सरकार के राज चिह्न में एक जोड़ा स्वस्तिक आज भी है. कहते है सुप्रसिद्ध चित्रकार उपेंदर महारथी से बिहार सरकार के राजचिन्ह का प्रारूप माँगा गया था और उन्होंने बोधिवृक्ष अथवा पीपल के एक पात को प्रतीक चिह्न का रूप दिया था. लेकिन सरकार में बैठे हिंदुवादियों को इतना गुस्सा आया कि तुलसी के पौधे के दायें बायें स्वस्तिक को राजचिह्न बना दिया. तो क्या आजादी के इतने दिनों बाद जब हमारा राष्ट्र भारत एक सर्व सम्मत रूप ले चुका है. हमारे राष्ट्रध्वज और राष्ट्रीय चिह्न को उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक के हर बार भारत माता का विवाद खडा कर हम राष्ट्र विरोधी कार्य ही नहीं कर रहे हैं ? ज़रा क्षण भर रुक कर हम विचार करें कि भारतमाता के ये सुपुत्र  हैं कौन ?क्या इन्हीं लोगों ने कभी हमारे राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का विरोध नहीं किया था, ऐसे में इनकी राष्ट्र भक्ति और देशभक्ति पर प्रश्न चिन्ह उठना स्वाभाविक हैं.




किसी को अपना देश माता भाई पिता या पुत्र-पुत्री के रूप में दिख रहा है और उसके प्रति अपनापा या भावुकता विकसित करने में सहायक हो रहा है, तो इसे कौन रोक सकता है. नहरू सुभाष जैसे नेताओं तक ने भारतमाता का जिक्र किया है (गांधी, अम्बेडर को भारतमाता का जिक्र करते मैंने नहीं पाया). अन्य अनेक लेखकों स्वतन्त्रता- सेनानियो, कवियों –लेखकों ने भारतमाता का उल्लेख किया है, लेकिन यह भारतमाता हमारा राष्ट्र नहीं है. हमारा राष्ट्र भारत है, और हम सब इसके वासी हैं. हम पर कोई भारतमाता थोप नहीं सकता. भारतमाता की जय करना क्या है, मैं नही जानता, लेकिन इसकी जय करने के लिए मजबूर करना राष्ट्रद्रोह है. क्योकि वह हामारे राष्ट्र को कमजोर करता है. भारत को भारतमाता में बदलना या एकरूप करना भारत के हिन्दूकरण  का पहला सोपान है और हर किसी को इसका विरोध करना चाहिए, जो भारत के सविधान में आस्था रखता है. यह सही है कि हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतमाता की जय होता रहा था, लेकिन उस आन्दोलन के कई तत्वों को हमने बाद में सुधारा है, या खरिज किया है. मसलन राष्ट्रीय आन्दोलन में ही गांधी जी ने अनुसूचित जातियों के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग किया था. इस नाम का वीकली अखबार भी निकालते थे. लेकिन आज इस शब्द को हमने खारिज कर दिया है. इसका प्रयोग करना क़ानूनी तौर पर मना है.  राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतमाता के प्रयोग से उसे संवैधानिक दर्जा नहीं मिल जाता . इसकी जगह हमने सुभाषचंद्र बोस के कौमी नारे ‘ जय हिंद’  को सभी रूपों में स्वीकार कर लिया है, और राजकीय समारोहों में भी इसका प्रयोग होता रहा है. लेकिन भारतमाता की जय का प्रयोग राजकीय समारोहों में होने का कोई प्रचलन नही रहा. आज सरकारी पदों पर बड़े लोगों को इसके प्रयोग के पूर्व कुछ सोचना चाहिए. (स्त्रिकाल से साभार)

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