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इंसानों के लिए अभी नहीं, गायो के लिए एम्बुलेंस की शुरआत

16 मई 2014 को नरेंद्र मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली थी। उम्मीद थी ढंग से देश चलाने और अच्छे दिन लाने की लेकिन हुआ उल्टा। कई ऐसे मुद्दों को हवा दी गई जिसने हिंदू-मुस्लिम भाईचारे में खटास पैदा करने की कोशिश की। लव-जिहाद, मुसलमानों की बढ़ती आबादी और घर वापसी से लेकर गोरक्षा जैसे फ़र्ज़ी मुद्दों के नाम पर देश की फ़िज़ा बिगाड़ने की भरपूर कोशिश की ही गई है। गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी, फिरौती, हत्याएं और लूटपाट की गई है और अब हथियार जुटाकर कमज़ोर तबके वालों को डराया धमकाया भी जा रहा है।


हालांकि इन मनगढ़त मुद्दों की परतें अब खुल कर सबके सामने आ चुकी हैं। सभी ने मान लिया है कि बीजेपी के लिए गाय माता नहीं, एक राजनीतिक पशु है। इस पशु के सहारे ही बीजेपी तमाम राज्यों में अपनी सत्ता को परवान चढ़ाना चाहती है मगर इस उन्माद में आदमी किस हद तक गिर सकता है, इसकी नई-नई मिसालें भी देखने को मिल रही हैं।

आजकल झारखंड का एक मामला चर्चा में है जहाँ आर के अग्रवाल नाम के एक व्यक्ति ने गायों के लिए एम्बुलेंस सर्विस शुरू की है। ख़ुद को समाजसेवी कहने वाले शख़्स ने इस सेवा की शुरुआत पिछले साल नवम्बर में की थी।


समाज सेवा के नाम पर इनकी दूसरी अहम सर्विस बूचड़खाने से गाय को आज़ाद कराकर उनको गौशाला भेजना भी है मतलब कि गोरक्षा।

यूँ तो श्रद्धा के मामले को समाज सेवा का नाम देकर गाय की देखभाल करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन अगर भयंकर ग़रीबी और पिछड़ेपन की मार झेलने वाले सूबे में ऐसा काम किया जाए तो संवेदनहीनता की पोल खुल कर सामने आ जाती है।

शिक्षा, स्वास्थ और गरीबी के मामले में झारखण्ड को देश के ऐसे पंगु और पिछड़े सूबों में गिना जाता है जहाँ आज़ादी के 70 साल बाद भी बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुँच पाईं हैं। बिजली, पानी और सड़क तो अभी दूर की कौड़ी है ही। हालात ये है कि ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में लोग घास-फूस और जंगली फलों को खाकर पेट की भूख शांत करने पर अभिशप्त हैं।


दिक्कतें सिर्फ इतनी ही नहीं हैं। नक्सल हिंसा और प्रशासनिक अत्याचार की समस्या भी यहां के लोगों के सामने हमेशा बनी रहती है। पिसता और तड़पता आम नागरिक है। मानवाधिकार की धज्जियां यहाँ रोज़ उड़ती हैं। नक्सलवाद के मामले में तो झारखण्ड छत्तीसगढ़ से सालों पहले आगे निकल चुका है।

इन तमाम समस्याओं की रोशनी में अगर ऐसे स्वघोषित समाज सेवक की सच्चाई खंगाली जाए तो बेहद शर्मनाक तस्वीर निकलकर आती है। सेवा का पहला हक़ उन मनुष्यों का है जो भूख से मर रहे हैं। जिनके पास जंगली घास को पकाने के लिए मिट्टी के बर्तन तक नहीं हैं लेकिन गोसेवा के नाम पर अपनी दुकान चमकाने की कोशिश में कोई कमी नहीं है।

यही वजह है कि समाजसेवक आर के अग्रवाल को कटघरे में खड़ा करने की माकूल वजह साफ़ नज़र आती है। अव्वल तो इनकी संकुचित सोच और हल्की समझ पर सवाल उठते हैं कि जिस सूबे की हालत इतने बदहाल और त्रस्त हो वहां समाज सेवा के नाम पर श्रद्धा और मान्यता की पूर्ति कैसे की जा सकती है।



जबकि दूसरी बड़ी वजह इनकी साम्प्रदायिक और कट्टर मानसिकता की ओर इशारा करती है। आज पूरे देश में गाय के नाम दलितों और अल्पसंख्यको को खूब मारा-पीटा जा रहा है। ऐसे माहौल के बीच सवाल उठता है कि आखिर इनकी समाज सेवा करने की प्राथमिकताओं में सूबे की गंभीर समस्याएँ शामिल क्यों नहीं हैं ? क्या यहाँ समाजसेवा के नाम गो-रक्षकों की गुंडई को अनैतिक रूप से समर्थन और बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है ?

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