‘हाउस वाइफ’ कॉलम में इस बार दिल्ली से रश्मि कुमारी
जनज्वार की इस पहल का दिल से धन्यवाद देती हूं कि इसके माध्यम से हम जैसी महिलाओं की वह आवाज भी सबके सामने आएगी, जो अक्सर दब जाती है। कभी आंसुओं में घुट जाती है तो कभी झूठी इज्जत के दबाव में।
खुद के बारे में कहां से शुरू करूं, समझ में नहीं आ रहा। मेरी शादी 17 साल की उम्र में कर दी गई थी। पति सरकारी नौकरी में थे, हम दोनों में लगभग 10 साल की उम्र का फासला है। मगर घरवालों को अपने सर से बोझ हटाना था और उस बोझ के लिए एक योग्य सरकारी नौकरीशुदा आदमी मिल रहा था, तो क्या फर्क पड़ना था इससे कि वह कितना बड़ा है मुझसे। मुझसे छोटी मेरी चार बहनें और जो थीं ब्याहने के लिए।
जब शादी तय की गई तो मुझसे किसी ने पूछने की जरूरत भी नहीं समझी कि तुम शादी को लेकर क्या सोचती हो, अभी शादी करना चाहती हो या नहीं। तुम्हें कैसा जीवनसाथी चाहिए। सबके सामने साड़ी पहनाकर मेरी दिखौती कर दी गई, और लड़के वालों को मैं संस्कारी गाय जैसी लड़की पसंद आ गई, जिसने कभी किसी को पलटकर जवाब भी नहीं दिया था।
मगर मेरे अंदर क्या चल रहा था, इसकी परवाह किसको थी। शादी तय होने के बाद भाभी ने ताने दिए, गुड्डो तेरे तो मजे हैं, सरकारी नौकरी है तेरे पति की, ऐश करेगी।
मेरी शादी 14 साल पहले हुई थी। मुझे याद है शादी के 4 दिन बाद मेरे बारहवीं बोर्ड की परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं। पर किसे परवाह थी मेरे पेपरों की, सबको तो किसी तरह घर से बोझ हटाना था। मैं खूब रोई थी, मां से कहा भी था कि शादी की कोई और तारीख पक्की कर दें, पर मां भी बाबूजी से थर—थर कांपती थीं तो वो जुबान तक ये बात ला भी नहीं पाईं।
बाबूजी को क्या फर्क पड़ता कि मेरे पेपर हैं, क्योंकि वो तो मेरी पढ़ाई के पक्ष में कभी थे ही नहीं। वो तो भला हो मेरी भाभी का कि उनके कारण बारहवीं तक स्कूल जा पायी, उन्होंने ही भैया से कहा था कि गुड्डो को इतनी छोटी सी उम्र से घर में बिठाकर क्या करोगे, स्कूल जाने दो।
खैर, मेरी शादी कर दी गई। ससुराल में पति से बड़े दो भाइयों का परिवार, तीन छोटे देवर और दो ननदें, सास—ससुर का परिवार था। घर में लगभग 20 लोग थे। शादी के दिन खूब रोई, ससुराल नहीं जाना चाहती थी, मुझे अपनी परीक्षाओं की चिंता हो रही थी।
किसी तरह अपने कपड़ों के साथ छुपाकर पॉलिटिकल साइंस और इकोनोमिक्स की किताबें ले आई थी ससुराल। पर यहां जिन चीजों से सामना होना था उससे तो मैं बिल्कुल अंजान थी।
शादी की रात ही पति ने मेरे तन के साथ—साथ मन को भी इस तरह रौंदा कि अगले दिन सुबह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। लोग बलात्कार कहते हैं, मगर मैं कहती हूं जो लड़कियां शादी के बाद पतियों का इस तरह का व्यवहार झेलती हैं वो क्या बलात्कार से कम है।
मैं पहले दिन के परिचय में जितना मना कर सकती थी, बोली कि मेरी 4 दिन बाद परीक्षा है। दिनभर रिश्तेदारों में बीत जाते हैं, रात में थोड़ा पढ़ लेने दीजिए। अब तो मैं आपकी ही हूं, शादी तक सब्र कर लीजिए, लेकिन मेरी एक न चली।
मेरे पति को सुहागरात का रोमांच था। कमरा फूलों से सजा हुआ था। पर मुझे याद है पहली रात, जितनी घिनौनी और तकलीफदेह रात कभी न गुजरी। बिना मन, बिल्कुल अचेत पड़ी मुझपर वह सुहागरात मनाते रहे और मैं आंखों से बरसती रही।
क्लाइमेक्स देखिए कि जब मेरे पति की मुझपर निगाह पड़ी और उन्होंने आंखों में आंसू देखे तो बोले, पहली बार ऐसा होता है, थोड़ा दर्द होता है।
ओह! इस वहशीपने को आप क्या कहेंगे? क्या यह बलात्कार नहीं था! पर नहीं!
नहीं था बलात्कार क्योंकि शादी की मुहर लग चुकी थी और मैं उनकी हो चुकी थी, ठीक वैसे ही जैसे मेरे पिता दी घड़ी, सोने की चेन और मोटरसाइकिल उनकी हो चुकी थी।
कोई इसके खिलाफ आवाज भी नहीं उठा पाता। यह बलात्कार भी नहीं है। खासकर मुझ जैसी महिलाएं तो बिल्कुल नहीं कुछ कह पातीं, जिन्हें हमेशा संस्कारी होने की शिक्षा दी जाती है और इसी पर गर्व करने का संस्कार भरा जाता है।।
यहां आकर घरेलू चक्की में इस तरह उलझी कि सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिली। हांं, शादी के बाद पेपरों का क्या हुआ ये तो बताना मैं भूल ही गई। शादी के दो दिन बाद पगफेरों के लिए मायके आई, तो खूब रोई, पति भी साथ आए थे। मैंने जब उनसे कहा कि मुझे थोड़े दिन यहां रहने दो, मेरी परीक्षाएं हैं तो उन्होंने उपहास उड़ाते हुए कहा कि क्या करोगी पढ़कर, कौन सा तुम्हें आईएएस बनना है। मेरी भाभी ने भी लगभग मिन्नतें कीं उनसे, मगर वो टस से मस नहीं हुए।
बड़े परिवार की संस्कारी बहू जो थी, तो जुबान तो कभी खोल ही नहीं पाई। कभी सास ताने देती, तो कभी—कभी जेठानियां सुना देतीं कि किस जाहिल को ब्याहकर ले आए, देवरजी को तो एक से एक लड़कियां मिल जातीं। पति भी हमेशा सबको यही ठसक दिखाते। हालांकि अब उनका व्यवहार पहले से मेरे प्रति बेहतर है, मगर अब भी अगर मैं कहूं कि अपने मन से कुछ कर पाउंगी तो वो संभव नहीं है।
सुबह 4 बजे के बाद मेरी दिनचर्या शुरू हो जाती थी, जो रात को 11 बजे तक जारी रहती। मैं ये नहीं कहती कि मेरी जेठानियां आराम फरमाती थीं, मगर मैं गरीब घर से थी तो मुझे हर बात पर ज्यादा काम्प्रोमाइज करना पड़ता। मायके में भी भाभी से कह पाती थी, तो वो समझातीं कि गुड्डो किसी के आगे जुबान मत खोलना, बड़े घर में है तुम्हारा ससुराल, धीरे—धीरे सब ठीक हो जाएगा।
शादी के 2 साल बाद ही एक लड़की की मां बन गई, उसके एक साल बाद एक लड़के की। घर के साथ—साथ बच्चों और पति की जिम्मेदारी संभालने में कभी—कभी इतना परेशान हो जाती कि सोचती काश मर जाती।
(रश्मि पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में रहती हैं। उत्तर प्रदेश के बागपत की रहने वाली रश्मि ने दिल्ली आने के बाद डिस्टेंस से इंटर पास किया। उनका सपना है वह अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दें और अच्छा इंसान बनाएं। आप भी अगर लिखने की इच्छुक हैं तो हमें sdlive24@gmail.com पर मेल करें। जो महिलाएं टाइप नहीं कर सकतीं वह हमें हाथ से लिखकर और फिर फोटो खींचकर मेल कर सकती हैं।)
जनज्वार की इस पहल का दिल से धन्यवाद देती हूं कि इसके माध्यम से हम जैसी महिलाओं की वह आवाज भी सबके सामने आएगी, जो अक्सर दब जाती है। कभी आंसुओं में घुट जाती है तो कभी झूठी इज्जत के दबाव में।
खुद के बारे में कहां से शुरू करूं, समझ में नहीं आ रहा। मेरी शादी 17 साल की उम्र में कर दी गई थी। पति सरकारी नौकरी में थे, हम दोनों में लगभग 10 साल की उम्र का फासला है। मगर घरवालों को अपने सर से बोझ हटाना था और उस बोझ के लिए एक योग्य सरकारी नौकरीशुदा आदमी मिल रहा था, तो क्या फर्क पड़ना था इससे कि वह कितना बड़ा है मुझसे। मुझसे छोटी मेरी चार बहनें और जो थीं ब्याहने के लिए।
जब शादी तय की गई तो मुझसे किसी ने पूछने की जरूरत भी नहीं समझी कि तुम शादी को लेकर क्या सोचती हो, अभी शादी करना चाहती हो या नहीं। तुम्हें कैसा जीवनसाथी चाहिए। सबके सामने साड़ी पहनाकर मेरी दिखौती कर दी गई, और लड़के वालों को मैं संस्कारी गाय जैसी लड़की पसंद आ गई, जिसने कभी किसी को पलटकर जवाब भी नहीं दिया था।
मगर मेरे अंदर क्या चल रहा था, इसकी परवाह किसको थी। शादी तय होने के बाद भाभी ने ताने दिए, गुड्डो तेरे तो मजे हैं, सरकारी नौकरी है तेरे पति की, ऐश करेगी।
मेरी शादी 14 साल पहले हुई थी। मुझे याद है शादी के 4 दिन बाद मेरे बारहवीं बोर्ड की परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं। पर किसे परवाह थी मेरे पेपरों की, सबको तो किसी तरह घर से बोझ हटाना था। मैं खूब रोई थी, मां से कहा भी था कि शादी की कोई और तारीख पक्की कर दें, पर मां भी बाबूजी से थर—थर कांपती थीं तो वो जुबान तक ये बात ला भी नहीं पाईं।
बाबूजी को क्या फर्क पड़ता कि मेरे पेपर हैं, क्योंकि वो तो मेरी पढ़ाई के पक्ष में कभी थे ही नहीं। वो तो भला हो मेरी भाभी का कि उनके कारण बारहवीं तक स्कूल जा पायी, उन्होंने ही भैया से कहा था कि गुड्डो को इतनी छोटी सी उम्र से घर में बिठाकर क्या करोगे, स्कूल जाने दो।
खैर, मेरी शादी कर दी गई। ससुराल में पति से बड़े दो भाइयों का परिवार, तीन छोटे देवर और दो ननदें, सास—ससुर का परिवार था। घर में लगभग 20 लोग थे। शादी के दिन खूब रोई, ससुराल नहीं जाना चाहती थी, मुझे अपनी परीक्षाओं की चिंता हो रही थी।
किसी तरह अपने कपड़ों के साथ छुपाकर पॉलिटिकल साइंस और इकोनोमिक्स की किताबें ले आई थी ससुराल। पर यहां जिन चीजों से सामना होना था उससे तो मैं बिल्कुल अंजान थी।
शादी की रात ही पति ने मेरे तन के साथ—साथ मन को भी इस तरह रौंदा कि अगले दिन सुबह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। लोग बलात्कार कहते हैं, मगर मैं कहती हूं जो लड़कियां शादी के बाद पतियों का इस तरह का व्यवहार झेलती हैं वो क्या बलात्कार से कम है।
मैं पहले दिन के परिचय में जितना मना कर सकती थी, बोली कि मेरी 4 दिन बाद परीक्षा है। दिनभर रिश्तेदारों में बीत जाते हैं, रात में थोड़ा पढ़ लेने दीजिए। अब तो मैं आपकी ही हूं, शादी तक सब्र कर लीजिए, लेकिन मेरी एक न चली।
मेरे पति को सुहागरात का रोमांच था। कमरा फूलों से सजा हुआ था। पर मुझे याद है पहली रात, जितनी घिनौनी और तकलीफदेह रात कभी न गुजरी। बिना मन, बिल्कुल अचेत पड़ी मुझपर वह सुहागरात मनाते रहे और मैं आंखों से बरसती रही।
क्लाइमेक्स देखिए कि जब मेरे पति की मुझपर निगाह पड़ी और उन्होंने आंखों में आंसू देखे तो बोले, पहली बार ऐसा होता है, थोड़ा दर्द होता है।
ओह! इस वहशीपने को आप क्या कहेंगे? क्या यह बलात्कार नहीं था! पर नहीं!
नहीं था बलात्कार क्योंकि शादी की मुहर लग चुकी थी और मैं उनकी हो चुकी थी, ठीक वैसे ही जैसे मेरे पिता दी घड़ी, सोने की चेन और मोटरसाइकिल उनकी हो चुकी थी।
कोई इसके खिलाफ आवाज भी नहीं उठा पाता। यह बलात्कार भी नहीं है। खासकर मुझ जैसी महिलाएं तो बिल्कुल नहीं कुछ कह पातीं, जिन्हें हमेशा संस्कारी होने की शिक्षा दी जाती है और इसी पर गर्व करने का संस्कार भरा जाता है।।
यहां आकर घरेलू चक्की में इस तरह उलझी कि सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिली। हांं, शादी के बाद पेपरों का क्या हुआ ये तो बताना मैं भूल ही गई। शादी के दो दिन बाद पगफेरों के लिए मायके आई, तो खूब रोई, पति भी साथ आए थे। मैंने जब उनसे कहा कि मुझे थोड़े दिन यहां रहने दो, मेरी परीक्षाएं हैं तो उन्होंने उपहास उड़ाते हुए कहा कि क्या करोगी पढ़कर, कौन सा तुम्हें आईएएस बनना है। मेरी भाभी ने भी लगभग मिन्नतें कीं उनसे, मगर वो टस से मस नहीं हुए।
बड़े परिवार की संस्कारी बहू जो थी, तो जुबान तो कभी खोल ही नहीं पाई। कभी सास ताने देती, तो कभी—कभी जेठानियां सुना देतीं कि किस जाहिल को ब्याहकर ले आए, देवरजी को तो एक से एक लड़कियां मिल जातीं। पति भी हमेशा सबको यही ठसक दिखाते। हालांकि अब उनका व्यवहार पहले से मेरे प्रति बेहतर है, मगर अब भी अगर मैं कहूं कि अपने मन से कुछ कर पाउंगी तो वो संभव नहीं है।
सुबह 4 बजे के बाद मेरी दिनचर्या शुरू हो जाती थी, जो रात को 11 बजे तक जारी रहती। मैं ये नहीं कहती कि मेरी जेठानियां आराम फरमाती थीं, मगर मैं गरीब घर से थी तो मुझे हर बात पर ज्यादा काम्प्रोमाइज करना पड़ता। मायके में भी भाभी से कह पाती थी, तो वो समझातीं कि गुड्डो किसी के आगे जुबान मत खोलना, बड़े घर में है तुम्हारा ससुराल, धीरे—धीरे सब ठीक हो जाएगा।
शादी के 2 साल बाद ही एक लड़की की मां बन गई, उसके एक साल बाद एक लड़के की। घर के साथ—साथ बच्चों और पति की जिम्मेदारी संभालने में कभी—कभी इतना परेशान हो जाती कि सोचती काश मर जाती।
(रश्मि पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में रहती हैं। उत्तर प्रदेश के बागपत की रहने वाली रश्मि ने दिल्ली आने के बाद डिस्टेंस से इंटर पास किया। उनका सपना है वह अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दें और अच्छा इंसान बनाएं। आप भी अगर लिखने की इच्छुक हैं तो हमें sdlive24@gmail.com पर मेल करें। जो महिलाएं टाइप नहीं कर सकतीं वह हमें हाथ से लिखकर और फिर फोटो खींचकर मेल कर सकती हैं।)
Janjwar से साभार