पत्रकारिता का मुख्य काम सवाल पूछना है और सवाल उसी से पूछे जाते हैं, जो सत्ता की ‘कुर्सी’ पर बैठा है. इसलिए लोकतंत्र में पत्रकार और चुनी हुई सरकार में मधुर संबंध अपेक्षित नहीं है. उनके बीच वैचारिक स्तर पर जितना ज्यादा संवाद और जितना छत्तीस का आंकड़ा रहे, उस ज़मीन का उतना ही भला होगा.
यह बात किसी पश्चिमी विद्वान के नाम से भी लिखी जा सकती थी, पर फिलहाल इस अदने पत्रकार ने अपनी तरफ से लिख दी है. अपनी राय और सदिच्छा तो ये है कि पत्रकारिता का मूल विचार ही पार्टी निरपेक्ष और सत्ता के विरुद्ध होता है. सरकार अपनी पीठ खुद ठोंक लेती है. टांग हमें खींचनी है.
नई दिल्ली में बुधवार को पत्रकारिता के रामनाथ गोयनका पुरस्कार बांटे गए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीफ गेस्ट थे और उन्हें अपने हाथों से कुछ पत्रकारों को उनकी बीजेपी विरोधी रिपोर्टों के लिए अवॉर्ड देना पड़ा. पत्रकार और लेखक अक्षय मुकुल को भी अवॉर्ड मिलना था, लेकिन वो नहीं पहुंचे. उन्होंने इस प्रोग्राम का बायकॉट ये कहते हुए पहले ही कर दिया था कि मैं खुद को नरेंद्र मोदी के साथ एक फ्रेम में नहीं देख सकता.
लेकिन ये इस प्रोग्राम की सबसे यादगार बात नहीं रही. सबसे यादगार थी, प्रोग्राम के अंत में आभार जताते हुए कही गई चार-आठ बातें. ये थे गोयनका ग्रुप के अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के एडिटर राजकमल झा. उन्होंने बायकॉट के बजाय संवाद का रास्ता चुना और प्रधानमंत्री के सामने कुछ दो-टूक बातें कहीं, अपनी एक छोटी सी स्पीच में.
राजकमल झा प्रोग्राम के आखिर में आभार जताने आए थे, प्रधानमंत्री के बोलने के ठीक बाद. उन्होंने अंग्रेजी में अपनी बात कही. हम आपको उसका हिंदी अनुवाद पढ़वा रहे हैं. जब पत्रकार की हैसियत इस बात से तय होने लगे कि कितने मंत्री उसका फोन उठाते हैं, तब इस छोटी सी स्पीच को बारम्बार पढ़ा जाए.
राजकमल झा मंच पर आए और बोले…
बहुत बहुत शुक्रिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी.
आपकी ‘स्पीच’ के बाद हम ‘स्पीचलेस’ हैं. लेकिन मुझे आभार के साथ कुछ बातें कहनी हैं.
आपके शब्दों के लिए बहुत आभार. आपका यहां होना एक मज़बूत संदेश है. हम उम्मीद करते हैं कि अच्छी पत्रकारिता उस काम से तय की जाएगी जिसे आज शाम सम्मानित किया जा रहा है, जिसे रिपोर्टर्स ने किया है, जिसे एडिटर्स ने किया है.
अच्छी पत्रकारिता ‘सेल्फी पत्रकार’ नहीं तय करेंगे जो आजकल कुछ ज़्यादा ही दिखते हैं और जो अपने विचारों और चेहरे से खुद अभिभूत रहते हैं और कैमरे का मुंह हमेशा अपनी तरफ रखते हैं. उनके लिए सिर्फ एक ही चीज़ मायने रखती है, उनकी आवाज़ और उनका चेहरा. इसके अलावा सब कुछ पृष्ठभूमि में है, जैसे कोई बेमतलब का शोर. इस सेल्फी पत्रकारिता में अगर आपके पास तथ्य नहीं हैं तो कोई बात नहीं, फ्रेम में बस झंडा रखिये और उसके पीछे छुप जाइये.
शुक्रिया सर कि आपने विश्वसनीयता की बात कही. ये बहुत ज़रूरी बात है जो हम पत्रकार आपके भाषण से सीख सकते हैं. आपने पत्रकारों के बारे में कुछ अच्छी-अच्छी बातें कहीं जिससे हम थोड़े नर्वस भी हैं.
आपको ये विकिपीडिया पर नहीं मिलेगा, लेकिन मैं इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर की हैसियत से कह सकता हूं कि रामनाथ गोयनका ने एक रिपोर्टर को नौकरी से निकाल दिया था, जब उनसे एक राज्य के मुख्यमंत्री ने कहा था कि आपका रिपोर्टर बड़ा अच्छा काम कर रहा है.
इस साल मैं 50 का हो रहा हूं और मैं कह सकता हूं कि इस वक़्त जब हमारे पास ऐसे पत्रकार हैं जो रिट्वीट और लाइक के ज़माने में जवान हो रहे हैं, जिन्हें पता नहीं है कि सरकार की तरफ से की गई आलोचना हमारे लिए इज़्ज़त की बात है.
हम जब भी किसी पत्रकार की तारीफ सुनें तो हमें फिल्मों में स्मोकिंग सीन्स की तर्ज पर एक पट्टी चला देनी चाहिए कि सरकार की तरफ आई आलोचना पत्रकारिता के लिए शानदार खबर है. मुझे लगता है कि ये पत्रकारिता के लिए बहुत बहुत जरूरी है.
इस साल हमारे पास इस अवॉर्ड के लिए 562 एप्लीकेशन आईं. ये बीते 11 सालों के इतिहास में सबसे ज़्यादा एप्लीकेशन हैं. ये उन लोगों को जवाब है जिन्हें लगता है कि अच्छी पत्रकारिता मर रही है और पत्रकारों को सरकार ने खरीद लिया है. अच्छी पत्रकारिता मर नहीं रही, ये बेहतर और बड़ी हो रही है. हां, बस इतना है कि बुरी पत्रकारिता ज़्यादा शोर मचा रही है जो 5 साल पहले नहीं मचाती थी.
आखिर में आप सबको इस शाम यहां आने के लिए शुक्रिया कहता हूं. यहां सरकार की तरफ से लोग हैं, यहां विपक्ष की तरफ से लोग हैं. हम जानते हैं कि कौन कौन है. लेकिन जब वे पत्रकारिता की तारीफ करते हैं तो इससे फर्क नहीं पड़ता. आप ये पता नहीं लगा सकते कि कौन सरकार में है और कौन विपक्ष में. ये इसी तरह होना चाहिए. थैंक्यू वैरी मच.(thelallantop के लये कुलदीप सरदार)