राजस्थान का इतिहास किसी रहस्य से कम नहीं है। यहां कि सभ्यता और संस्कृति आज भी शोध का विषय बना हुआ है। हड़प्पा विश्व की पहली विकसित सभ्यता है। इस सभ्यता में ही नगर की नींव रखी गई थी। इसलिए इसे नगरीकरण सभ्यता भी कहते हैं। जिसका उल्लेख कई विद्वान और इतिहासकारों ने किया है।
इतिहासकारों का मानना है कि पहली बार कांस्य का प्रयोग भी इसी सभ्यता में हुआ था। इसलिए इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है। यह सभ्यता 2500 ईसा पूर्व से 1800 ईसा पूर्व तक मानी जाती है। यहां के मकानों और पुरानी ईंटों से यह पता चलता की यह सभ्यता कितनी पुरानी है। हालांकि इसके विनाश के कारणों पर विद्वान के एकमत नहीं है।
नदी घाटी सभ्यताओं में सबसे प्रमुख सभ्यता थी यहां की: सिंधु घाटी सभ्यता (3300-1700 ईसा पूर्व) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में एक प्रमुख सभ्यता थी। इस सभ्यता का विकास सिंधु और सरस्वती नदी के किनारे हुआ। इसके प्रमुख केंद्र मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थें। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी। ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं। चाल्र्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने 1872 में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे में एक लेख लिखा। 1921 में दयाराम साहनी ने हड़घ्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी में फैली हुई थी। इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। आज तक सिन्धु घाटी सभ्यता के 1400 केन्द्रों को खोजा जा चुका है। जिसमें से 925 केन्द्र भारत में है। 80 प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है। अभी तक कुल खोजों में से 3 प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है।
क्यों रखा गया इस सभ्यता का नाम हड़प्पा: इतिहासकारों के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। विद्वानों ने इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया। क्योंकि यह क्षेत्र सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आते हैं। लेकिन बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, वनमाली, रंगापुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले। जो कि सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। इसलिए कई इतिहासकारों ने इस सभ्यता का प्रमुख केन्द्र हड़प्पा को माना। यहीं वजह है कि इस सभ्यता को "हड़प्पा सभ्यता" नाम देना अधिक उचित मानते हैं।
कैसी विनाश हुआ यह सभ्यता: सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं। विनाश के बारे में विश्व के कई विद्वान और इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। बर्बर आक्रमण, जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक असंतुलन, बाढ़, भूंकप और महामारी, आर्थिक जैसे कारण माने जाते हैं। ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोई एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ। जो अलग-अलग समय में या एक साथ होने कि सम्भावना है। मोहनजोदड़ो में नगर और जल निकास कि व्यवस्थ से महामरी कि सम्भावन कम लगती है। भीषण आग के भी प्रमाण मिले हैं। इससे साबित होता है कि यहां अग्निकांड हुआ था। मोहनजोदड़ो के एक कमरे से 14 नर कंकाल मिले है। जो आगजनी, महामारी के संकेत हैं।
इस सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान क्या बात थी: इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो ऐसे दो नगर थे, जहां शासक वर्ग के अपने-अपने दुर्ग थे। दुर्ग के बारह एक-एक उससे निम्न स्तर का शहर था। यहां के मकान ईंटों से बने थे। जहां सामान्य परिवार रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये भी थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहां के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहां के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देखकर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान थे।
ईंटों का इस्तेमाल भी दूसरे सभ्यता से भिन्न: यहां के मकानों में ईंट का इस्तेमाल भी विशेष था। क्योंकि इसी समय के मिस्त्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ था। समकालीन मेसोपेटामिया में भी पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता है। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नहीं, जितना सिंधु घाटी सभ्यता में थी। मोहनजोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगां के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे।घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहां इनके नीचे मोरियां (नालियां) बनी थीं।अक्सर ये मोरियां ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं। सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे। सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं।
Manish Kumar