दण्ड प्रक्रिया संहिता में नई धारा 41ए जोड़कर विश्वनीय साक्ष्य संकलित किये बिना अभियुक्तों की गिरफ्तारी पर विधिक रोक लगाये जाने के बावजूद आम लोगों पर गिरफ्तारी का पुलिसिया कहर जारी है। पूँछताछ पर अन्य किसी नाम पर किसी को भी कोई कारण बताये बिना निरुद्ध रखना और फिर उसे उत्पीडि़त करना पुलिस कर्मियों की फितरत है। इसमें सुधार की कोई गुन्जाइस दिखती भी नहीं है। आजादी के बाद पुलिस में सुधार के लिए बनाये गये किसी भी कमीशन की रिपोर्ट को लागू करना किसी भी सरकार की प्राथमिकता में नहीं रहा है। सभी दलों ने अपनी अपनी सरकारों के दौरान उसके दुरुपयोग में महारथ हासिल की है और इसी कारण पुलिस को जनता ओरियेन्टेड एक निष्पक्ष एवं पारदर्शी सर्विस प्रोवाइडर संस्थान बनाने की दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की जा रही है। और उसके कारण आम लोगों को उत्पीडि़त करने के लिए पुलिसकर्मियांे को खुली छूट मिली हुई है और उन पर अंकुश रखना किसी की भी चिन्ता का विषय नही हैं। जबकि इससे आम लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है।
अपने देश की 1353 जेलों में निरुद्ध लगभग चार लाख लोगों में आधे से ज्यादा विचाराधीन बन्दी है अर्थात अपने विरुद्ध कोई दोष सिद्ध हुये बना भी वह जेल में है। इनमें से अधिकांश आर्थिक कारणों से जमानत का प्रबन्ध न कर पाने के कारण जेल में रहने को अधिशप्त हैं। अपने देश में प्रतिवर्ष लगभग पचहत्तर लाख व्यक्ति गिरफ्तार किये जाते है। इनमें से अस्सी प्रतिशत लोग साधारण अपराधों या सात वर्ष तककी सजा वाले अपराधों में गिरफ्तार किये जाते है। ऐसे अभियुक्तों के फरार होने विचारण के समय अदालत के समक्ष हाजिर न रहने या साक्षियांे को डराने, धमकानें कुप्रभावित करने की अशंका न के बराबर होती है। ऐसे लोगों गिरफ्तार करके जेल भेजने और अदालत के सक्षम उनकी जमानत का विरोध करने का कोई युक्तियुक्त आधार न होने के बावजूद अभियोजन कीतरफ से जमानत का विरोध किया जाता हैं। दुर्भाग्यवश जमानत प्रार्थनापत्रों की सुनवााई केे दौरान थाने से रिपोर्ट नही आई पुट अप टुमारो का आदेश आम बात हो गई हैऔर इस कारण साधारण मामलों में जेल जाना मजबूरी बन गया है। परिवाद के मामलों में तलबी आदेश के बाद न्यायालय द्वारा भेजे गये सम्मन के अनुपालन में न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले अभियुक्तों को पहले जमानत अधिकार स्वरूप मिल जाया करती थी परन्तु अब ऐसे मामलों में भी अभियुक्त जेल भेज दिये जाते है जबकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88 के तहत तलवी आदेश के बाद अभियुक्तों की उपस्थिति बजरिये अधिवक्ता स्वीकार की जा सकती है। इसका स्पष्ट प्रावधान विधि में है।
आपातकाल के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार ने पुलिस सुधार के लिए धर्मवीर आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि इकसठ प्रतिशत आपराधिक मामलों में अभियुक्तों की गिरफ्तारी जरूरी नहीं होती। सर्वोच्च न्यायालय ने जोगेन्द्र सिंह के मामले में जारी अपने दिशा निर्देशो में कहा था कि पुलिस को केवल उन्ही मामलों में गिरफ्तारी करनी चाहिये जहाँ इसकी वास्तविक जरूरत हो। केवल औपचारिकतावश नामजद अभियुक्तों को गिरफ्तार करके महीनो जेल में निरुद्ध रखना न्याय संगत नही है। इन दिशा निर्देशों की प्रकृति आदेशात्मक है परन्तु स्थानीय स्तरों पर अनावश्यक गिरफ्तारियों पर कोई रोक नहीं लगी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालयने लाला कमलेन्दु प्रसाद के मामले में फिर से एक नया आदेश पारित किया परन्तु आम लोगों पर गिरफ्तारी का पुलिसिया कहर बन्द नहीं हो सका हैं। लाला कमलेन्दु प्रसाद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय होने के बावजूद अधिनस्थ न्यायालयों के समक्ष आम लोगों को इसका लाभ नही मिल सका। इस निर्णय का लाभ प्राप्त करने के लिए हाई कोर्ट की शरण लेनी पड़ती है और उसका व्यय वहन करना सब लोगों के वश की बात नही है।
आपराधिक न्याय प्रशासन में सुधार के लिए बनाई गई मलिमथ कमेटी ने वर्ष 2000 मे अटल बिहारी बाजपेयी सरकार के समक्ष प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में अनावश्यक गिरफ्तारियों पर चिन्ता जताई थी और इसके समाधान के लिए कई सार्थक सुझाव दिये थे परन्तु अन्य आयोगो एवं कमेटियों की तरह मलिमथ कमेटी की अनुशंासाये भी लागू होने की प्रतीक्षा में दम तोड़ने लगी हैं। मलिमथ कमेटी ने सुझाव दिया थाकि पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार देने वाले संज्ञेय अपराधों की संख्या कम कर दी जाये। कुछ गम्भीर अपराधों को छोड़कर अवशेष मामलों को असंज्ञेय अपराध के रूप में वर्गीकृत किया जाये ताकि इन मामलों में गिरफ्तारी का अधिकार स्वतः समाप्त हो सके। कुछ विशेष अपराधों में अदालत की अनुमति से अभियुक्तों की गिरफ्तारी का अधिकार पुलिस को दिया जा सकता है परन्तु वर्तमान व्यवस्था को किसी भी दशा में जारी रखना न्यायसंगत नही हैं।
सात वर्ष तक की सजा वाले अपराधों में विश्वसनीय साक्ष्य संकलित किये बिना गिरफ्तारी पर विधिक रोक लगने के बाद देश में गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों की संख्या चैहत्तर लाख से बढ़कर उन्यासी लाख हो गई है जो इस तथ्य का प्रतीक है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके बढ़ाई गयी धारा 41ए का लाभ आम लोगों को प्राप्त नहीं हो सका जबकि विधिक सेवा प्राधिकरण सहित सभी सम्बन्धित एजेन्सियों ने इस धारा का व्यापाक प्रचार किया है। स्थानीय पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी के अधिकार मे किसी भी प्रकार की कटौती को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानते है इसलिए उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। आँकड़े जाहिर करते हैकि करीब चालिस प्रतिशत विचाराधीन बन्दी पहले तीन महीने के भीतर जेल से जमानत पर रिहा हो जाते है। लगभग साठ प्रतिशत विचारधीन बन्दियों को एक वर्ष के अन्दर जमानत मिल जाती है। इनमें से अधिकांश मामलोें मे विचारण के दौरान अभियुक्त के विरुद्ध अभियोजन एजेन्सी अदालत के समक्ष समुचित साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाती और अभियुक्त दोषमुक्त हो जाता है और उसको जेल भेजने का औचित्य निराधार साबित हो जाता है। इससे यह भी साबित हो जाता है कि पुलिस अपनी हनक बनाये रखने और आम लोगो को सबक सिखाने के लिए किसी मुक्ति युक्त आधार के बिना लोगों को गिरफ्तार करके जेल भेज देती है जो गिरफ्तारी के अधिकार की मूल भावना के प्रतिकूल हैं।
आम लोगों को अनावश्यक गिरफ्तारी से बचाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने अपने स्तर पर सार्थक पहल की हैं परन्तु यह पहल अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी कार्य प्रणाली में सुधार के लिए पे्ररित नहीं कर पा रही हैं जबकि अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों को जमानत पर रिहा करने के बजाय विचाराधीन बन्दी के रूप में उन्हें एक या दो दिन के लिए जेल भेज देने की अधीनस्थ न्यायालयों की मानसिकता भी सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों को उनकी मूल भावना के अनुरूप लागू करने में एक बड़ी बाधा है। थाना कोतवाली हलद्वानी में एक व्यवसायिक विवाद में स्थानीय पुलिस ने एक कम्पनी के अधिकारी को बरेली में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जबकि उस मामले में नैनीताल हाईकोर्ट ने गिरफ्तारी पर रोक लगा रखी थी और न्यायिक मजिस्ट्रेट ने भी तकनीकी कारणांे से गिरफ्तार अधिकारी को जमानत नही दी और जेल भेज दिया। इस मामले में अन्य अभियुक्तों को न्यायिक मजिस्टेªट के समक्ष उपस्थित हुये बिना सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच हजार रूपये की दो जमानतों और इतनी ही राशि के बन्धपत्र पर रिहा करने का आदेश पारित किया था। बाद में इस मामले की प्रथम सूचना रिपोर्ट को नैनीताल हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति बी.सी. काण्डपाल ने खारिज भी कर दिया था परन्तु स्थानीय पुलिस की धींगामुस्ती और न्यायिक अधिकारी की रूटीन वर्किंग के कारण एक निर्दोष व्यक्ति को बाइस दिन तक जेल में रहकर सामाजिक आपमान और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों पर जिम्मेदारी डाली है कि जब उनके समक्ष किसी गिरफ्तार व्यक्ति को पेश किया जाये तो उन्हें समीक्षा करनी चाहिए कि क्या गिरफ्तारी आवश्यक थी? और यदि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के गुण दोष पर गिरफ्तारी अनावश्यक प्रतीत हो तो व्यक्ति को तत्काल जमानत पर रिहा कर दे। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भीकहा है कि इन दिशा निर्देशों का अनुपालन न करने वाले पुलिस कर्मियों और न्यायालय की अवमानना का दोषी माना जाय। मुझे नहीं लगता कि मेरे जीवनकाल में सर्वोच्च न्यायालय के इस दिशा निर्देश का अनुपालन अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष सुनिश्चित कराया जा सकेगा।
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advocateopinion ब्लॉग से साभार