अमरीका के प्रिंस्टन विश्वविद्यालय की न्यूक्लियर फ्यूचर्स लेबोरेट्री व प्रोग्राम ऑन साईंस एंड ग्लोबल सिक्यूरिटी से जुड़े और गूगेनहेम फैलोशिप से सम्मानित जानेमाने परमाणु भौतिकशास्त्री डॉ. एम.व्ही. रमन्ना ने पिछले माह मुंबई पत्रकार संघ के कार्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में भाषण देते हुए भारतीय उपमहाद्वीप के शासकों के परमाणु शस्त्रों के प्रति अतिशय आकर्षण पर प्रश्नचिन्ह लगाया। वे ‘‘दक्षिण एशिया
में परमाणु अस्त्रः कार्यक्रम, योजनाएं और खतरे’’ विषय पर बोल रहे थे।
कार्यक्रम का आयोजन प्रसिद्ध पत्रकार व शांतिवादी प्रफुल्ल बिदवई की याद में डॉ. अस़गर अली इंजीनियर स्मृति सलाहकार परिषद और कोएलेशन फॉर न्यूक्लियर डिस्आर्मामेंट एंड पीस (सीएनडीपी) द्वारा किया गया था। प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘द पॉवर ऑफ प्रोमिस एग्जामिनिंग ऑफ न्यूक्लियर एनर्जी इन इंडिया’’ के लेखक, डॉ. रमन्ना ने दक्षिण एशिया के दो पड़ोसी देशों के बीच चल रही परमाणु अस्त्रों की दौड़ की चर्चा करते हुए उसके खतरनाक निहितार्थों पर प्रकाश डाला।
डॉ. रमन्ना ने कहा कि भारत के स्वतंत्र होने के तुरंत बाद, एक अधिनियम के जरिए, एक ऐसे संगठन को अस्तित्व में लाया गया जिसका मूल उद्देश्य परमाणु ऊर्जा का विकास करना था।
परमाणु अस्त्रों से लैस होने से मिलने वाले संभावित लाभों से मोहित शासक, यद्यपि लगातार यह कहते रहे कि परमाणु ऊर्जा का विकास ‘‘शांतिपूर्ण उद्देश्यों’’ के लिए किया जा रहा है परंतु एक मौके पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यह स्वीकार किया कि वे ‘‘यह नहीं जानते कि दोनों (शांतिपूर्ण व रक्षा उद्देश्यों) के बीच अंतर कैसे किया जाए।’’
परमाणु ऊर्जा से जुड़ी संस्थाओं ने ढांचागत सुविधाओं का निर्माण करते समय इस संभावना को संज्ञान में लिया कि इन सुविधाओं और तकनीकी का इस्तेमाल सैनिक उद्देश्यों के लिए भी किया जा सकता है। सन 1960 में स्थापित किए गए साइरस रिएक्टर और सन 1964 में स्थापित ट्राम्बे पुनर्प्रसंस्करण संयंत्र ने भारत को ऐसे प्लूटोनियम का उत्पादन करने की क्षमता दी, जिसका इस्तेमाल परमाणु हथियार बनाने के लिए किया जा सकता है। यद्यपि परमाणु परियोजनाओं की ओर जनता का अधिक ध्यान नहीं गया तथापि परमाणु शस्त्र विकसित करने के मुद्दे पर बहस ने नेहरू की मृत्यु और चीन द्वारा 1964 में परमाणु अस्त्र के परीक्षण के बाद ज़ोर पकड़ लिया। यह बहस मुख्यतः सुरक्षा, कीमत, नैतिकता और प्रतिष्ठा जैसे मुद्दों पर केंद्रित रही।
परंतु परमाणु शस्त्रों पर चल रही बहस के बीच, सन 1974 में भारत ने राजस्थान के पोखरण में परमाणु बम परीक्षण किया। यह विडंबना ही थी कि सरकार ने इसे ‘‘शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण’’ बताया।
यह परीक्षण सन 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद और बांग्लादेश के निर्माण के आसपास किया गया। रमन्ना का तर्क है कि भारतीय उपमहाद्वीप में पहला परमाणु बम परीक्षण कर भारत ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के दो टुकड़ों में बंटने के बाद, उपमहाद्वीप पर अपना प्रभुत्व घोषित करने के लिए किया। यह स्पष्ट है कि यह विस्फोट भारत के असुरक्षा के भाव से प्रेरित नहीं था। परीक्षण के लिए जो समय चुना गया, उससे परमाणु अस्त्रों के समर्थकों का यह तर्क खोखला सिद्ध होता है कि भारत का परमाणु शस्त्रों की ओर झुकाव, चीन द्वारा परमाणु परीक्षण करने के कारण हुआ।
यद्यपि भारत ने अन्य परमाणु शस्त्र संपन्न देशों की राह नहीं चुनी परंतु 1974 के परीक्षण के बाद से, परमाणु शस्त्र कार्यक्रम कभी रूका नहीं। परमाणु लॉबी ने परमाणु शस्त्रों की डिजाइन को बेहतर बनाने की कोशिशें जारी रखीं व और ज्यादा परीक्षण करने की अनुमति मांगी। भारत ने अपना मिसाईल कार्यक्रम भी शुरू किया, जिसके अंतर्गत पृथ्वी और अग्नि मिसाईलें बनाई गईं जो कि परमाणु शस्त्रों से लैस की जा सकती हैं।
सन 1990 के दशक में परमाणु बम समर्थक लॉबी की सक्रियता के कारण, भारत ने कोम्प्रीहैन्सिव टेस्ट बैन ट्रीटी (सीटीबीटी) के विरूद्ध अपना मत दिया। यह दिलचस्प है कि जहां एक ओर सत्ता के गलियारों में परमाणु शस्त्रों के पक्ष में वातावरण बन रहा था, वहीं इसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी और हिन्दू प्रभुत्ववादियों की ताकत में वृद्धि हो रही थी। इन ताकतों की सोच सैन्यवादी और फासीवादी है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए के सत्ता में आने के कुछ ही समय बाद, मई 1998 में, भारत ने एक और परमाणु परीक्षण किया और यह दावा भी किया कि भारत ने हाइड्रोजन बम का सफल परीक्षण कर लिया है। पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम की चर्चा करते हुए रमन्ना ने बताया कि शीत युद्ध के दौर में अमरीका ने पाकिस्तान के साथ दोस्ताना और रणनीतिक संबंध स्थापित किए ताकि दक्षिण एशिया में उसे एक ठिकाना मिल सके।
पाकिस्तानी वैज्ञानिकों को अमरीका ने अपने ‘‘एटम्स फॉर पीस प्रोग्राम’’ (शांति के लिए परमाणु कार्यक्रम) के अंतर्गत प्रशिक्षण दिया। सन 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद, अमरीका ने पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देनी बंद कर दी (यद्यपि चीन ने इसे जारी रखा)। पाकिस्तान के कुछ नेताओं, विशेषकर विदेश मंत्री जेड ए भुट्टो ने परमाणु बम बनाने की मांग की।
सन् 1971 के युद्ध के बाद, सन् 1972 में पाकिस्तान में परमाणु अस्त्र कार्यक्रम शुरू किया गया। सन् 1974 के भारतीय परमाणु परीक्षण के बाद इसमें तेजी आई। नीदरलैंड में रह रहे पाकिस्तानी धातु वैज्ञानिक ए क्यू खान ने पाकिस्तान के लिए परमाणु बम बनाने का प्रस्ताव किया।
इस गुप्त योजना का खुलासा होने के बाद, अमेरिका ने पाकिस्तान पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए जो 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के बाद उठा लिए गए और 1989 में सोवियत संघ के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद पुनः लगा दिए गए। परंतु इस बीच पाकिस्तान ने अति समृद्ध यूरेनियम का उत्पादन शुरू कर दिया और परमाणु बम की डिजाईन तैयार की, जिसका परीक्षण मई 1998 में किया गया।
सन् 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद से पाकिस्तान और भारत, दोनों ने, परमाणु शस्त्रों के संभावित इस्तेमाल के लिए प्रक्रिया निर्धारण का काम शुरू कर दिया। भारत में सेना ने परमाणु शस्त्रों पर और अधिक नियंत्रण प्राप्त कर लिया है। दोनों देशों के बीच शांति वार्ताएं चलती रहती हैं परंतु इनका उद्देश्य मात्र यह साबित करना होता है कि भारत और पाकिस्तान जिम्मेदार राष्ट्र हैं। इन वार्ताओं के कोई ठोस नतीजे सामने नहीं आए हैं।
सन् 2014 में भारत के पास परमाणु शस्त्र बनाने के लिए उपयुक्त प्लूटोनियम का लगभग 600 किलोग्राम का भंडार होना बताया जाता है। एक परमाणु बम बनाने के लिए पांच किलोग्राम प्लूटोनियम पर्याप्त होता है। भारत के पास अति समृद्ध यूरेनियम (एचईयू) का 3.2 टन भंडार बताया जाता है, जिसमें से लगभग एक टन यू-235 का है। ऐसा कहा जाता है कि यह भंडार मुख्यतः अरिहंत परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम के लिए है परंतु चूंकि यह मात्रा, परमाणु पनडुब्बियों के लिए आवश्यक मात्रा से कहीं ज्यादा है, इसलिए यह संभावना है कि एचईयू का इस्तेमाल परमाणु शस्त्र बनाने के लिए किया जा सकता है। एक परमाणु बम बनाने के लिए लगभग 25 किलो एचईयू काफी होता है। सन् 2014 के अंत में पाकिस्तान के पास लगभग 3.1 टन एचईयू और 190 किलो प्लूटोनियम का भंडार होने का अनुमान है।
मिसाईल परीक्षणों के रिकार्ड से ऐसा लगता है कि भारत दो ऐसी तकनीकों का विकास कर रहा है जो भारतीय उपमहाद्वीप में अस्थिरता ला सकती हैं। ये हैं बैलिस्टिक मिसाईल डिफेंस और पूर्व चेतावनी प्रणालियां, जिनके अंतर्गत रेडार और उपग्रहों का इस्तेमाल कर मिसाईलों के छोड़े जाने और उनकी उड़ान के रास्ते पर नजर रखी जा सकती है।
यद्यपि भारत ने परमाणु बम पहले इस्तेमाल न करने की घोषणा की है परंतु डॉ. रमन्ना का कहना है कि यह एक अस्पष्ट सी नीति है। सिद्धांततः, इसका अर्थ यह है कि बदले की कार्यवाही करने के पहले, हमलावर मिसाईल के विस्फोट का इंतजार किया जाएगा। परंतु जिस तरह की पूर्व चेतावनी प्रणालियां विकसित की जा रही हैं उससे ऐसा लगता है कि नेतृत्व इस तरह के विस्फोट का इंतजार नहीं करेगा और किसी हमले की चेतावनी मिलते ही मिसाईलें दागने का आदेश जारी कर दिया जाएगा।
उन्होंने कहा कि पूर्व चेतावनी प्रणालियां त्रुटिरहित नहीं होतीं और इस बात की संभावना हमेशा बनी रहती है कि कोई गलत चेतावनी मिलने के बाद, मिसाईलें छोड़ दी जाएं। शीतयुद्ध के दौरान कई मौकों पर अमेरिका की पूर्व चेतावनी प्रणाली ने यह गलत सूचना दी कि सोवियत मिसाईलें अमेरिका की ओर दागी गईं हैं जबकि ऐसा नहीं था।
अमेरिका और सोवियत संघ के मामले में भौगोलिक दूरी के कारण गलतियों को ठीक करने का समय उपलब्ध रहता था परंतु भारत और पाकिस्तान पड़ोसी देश हैं और एक देश की मिसाईल को दूसरे देश की राजधानी तक पहुंचने में 6 से 13 मिनिट लगेंगे। अगर इसमें से वह समय घटा दिया जाए जो मिसाईल के दागे जाने की पुष्टि करने में लगेगा, तो यह स्पष्ट है कि नेतृत्व के पास यह तय करने के लिए केवल कुछ ही मिनिट होंगे कि परमाणु मिसाईलें छोड़ी जाएं अथवा नहीं। चूंकि कोई भी तकनीकी पूर्णतः त्रुटिरहित नहीं हो सकती इसलिए यह स्पष्ट है कि पूर्व चेतावनी प्रणालियों से अनचाहे ही परमाणु युद्ध शुरू हो सकता है।
शक्ति संतुलन सिद्धांत की चर्चा करते हुए डॉ. रमन्ना ने कहा कि पाकिस्तान को इस बात का अहसास है कि उसके पास परमाणु शस्त्रों का जखीरा होने के कारण ही कारगिल युद्ध के समय भारत ने उस पर बड़ा हमला नहीं किया। इसके बाद से वह परमाणु अस्त्रों का इस्तेमाल करने में और कम हिचकिचाएगा, विशेषकर इसलिए क्योंकि ऐसी खबरें हैं कि भारत ने युद्ध शुरू होने की स्थिति में रक्षा की बजाए हमला करने की नीति पर काम करना शुरू कर दिया है।
अमेरिका के दुनिया पर वर्चस्व की राह में चीन सबसे बड़ा रोड़ा माना जाता है और इसलिए चीन के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने का मुकाबला करने के लिए भारत को बढ़ावा देना अमेरिका की मजबूरी है। अमेरिका के चीन के भय के कारण ही अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालीसा राईस ने सन् 2000 में कहा था कि भारत अब तक एक महाशक्ति नहीं बन सका है परंतु उसमें महाशक्ति बनने की क्षमता है।
भारत के न्यूलिक्यर सप्लाएर्स गु्रप (एनएसजी) का सदस्य बनने पर जो जश्न मनाया गया उसकी चर्चा करते हुए डॉ. रमन्ना ने कहा कि इससे भारत को कोई सीधा लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि उसके पास पहले से ही न्यूक्लियर रियेक्टर एवं यूरेनियम उपलब्ध हैं। दरअसल यह अमेरिका की एक चाल है जिसके जरिए वह यह चाहता है कि भारत, चीन के साथ अमेरिका के संघर्ष में उसके साथ खड़ा हो। हमें स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि क्या भारत को अमेरिका का पिट्ठू बनना चाहिए। क्या चीन के साथ प्रतियोगिता कर हम कुछ हासिल कर सकेंगे?
सत्र की अध्यक्षता आनंद पटवर्धन ने की। श्रोताओं में विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं के विद्यार्थी, जैतापुर परमाणु ऊर्जा परियोजना का विरोध कर रहे कार्यकर्ता, प्राध्यापक और शोधकर्ता शामिल थे। (लेखिका सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म में कार्यक्रम समन्वयक हैं)