नई दिल्ली। ओडिसा में मरी पत्नी की लाश को कंधे पर लादकर 12 किमी ले जाने वाले दाना मांझी की तस्वीर मीडिया और सोशल मीडिया में वायरल हो रही है। इसे देश की अंतरआत्मा की लाश और लोकतंत्र का बोझ बताया जा रहा है। इस मुद्दे को वायरल होते ही सारा देश दुखी है मीडिया ने प्राइम टाइम में जगह दी है। लेकिन इससे भी वीभत्स मुद्दे देश में हुए हैं वे प्राइम टाइम क्या न्यूज हैडलाइन से भी गायब रहे हैं। इस मामले पर वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल लिख रहे हैं........
गुजरात में ऊना कांड के बाद 9 दिनों तक राज्य में कोहराम मचा रहा. कलेक्टर के ऑफिस में मरी गाय फेंक दी गई. सड़के जाम हुईं. राज्य सरकार तबाह हो गई. लेकिन 11 जुलाई से लेकर 20 जुलाई तक इसकी कोई खबर एक भी राष्ट्रीय चैनलों और समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर नहीं आई.
डेल्टा मेघवाल के मामले में पूरा पश्चिमी राजस्थान खौलता रहा. लेकिन राष्ट्रीय चैनलों और अखबारों ने आखिर तक उसकी अनदेखी की. रोहित वेमुला के मामले में भी विरोध की खबरों को दबाया गया.
वही मीडिया ओडिशा में पत्नी की लाश ढो रहे आदमी पर पहले ही दिन आधे आधे घंटे का शो कर रहा है. खूब खबरें दिखाई जा रही हैं. आंसू की नदी बह चली है. एंकर रो रहे हैं.
जानते हैं क्यों?
लाचार बहुजन सबको पसंद है. विद्रोही बहुजन से डर लगता है. मीडिया में उत्पीड़न की खबर मिलेगी. प्रतिरोध की दास्तान नहीं.
यह मीडिया आपके काम का नही है. ओडिशा में आदिवासियों के किसी आंदोलन पर किसी चैनल ने कब कोई कार्यक्रम किया है? दिल्ली में आदिवासियों के किसी भी आंदोलन का कोई कवरेज नहीं होता.
नागपुर और मुबंई में 10,000 से 50,000 तक बहुजन सड़कों पर आए. राष्ट्रीय चैनलों पर 10 सेकेंड की खबर नहीं.
आप रोएंगे, तो मीडिया आपको दिखाएगा. आपने जैसे ही अपनी मुट्ठी तान ली, आप मीडिया से लापता.(नेशनल दस्तक से)