संस्कृत भाषा को लेकर दावा किया जाता हैं ये दुनिया की सभी भाषाओं की जननी हैं. वेद और पुरानों की भाषा बताकर दावा किया जाता हैं कि संस्कृत का जन्म भारत में हुआ था. लेकिन इसको लेकर बड़ा झुलासा हुआ हैं.
इतिहासकारों और भाषाविज्ञानियों के अनुसार उपरोक्त दोनों ही दावें झूठे और निराधार हैं. दरअसल संस्कृत एक विदेशी भाषा हैं. जिसकी उत्पत्ति आज के सीरिया में हुई थी.
सत्याग्रह की रिपोर्ट के अनुसार, इतिहासकार बताते हैं कि 1500 से 1350 ईसा पूर्व के दौरान यूफरेट्स और टिगरिस नदी घाटी के ऊपरी इलाके में मितन्नी नाम के एक राजवंश का शासन था. आज ये इलाका सीरिया, इराक और तुर्की में बंटा हुआ है. मितन्नी राजवंश के हर राजा का नाम संस्कृत में होता था. यही बात कई स्थानीय सामंतों पर भी लागू होती थी. पुरुष, दुश्रत्त, सुवरदत्त, इंद्रोता और सुबंधु जैसे कई नाम इनमें शामिल थे. वस्सुकन्नि अर्थात वसुखनि इस राज्य की राजधानी थी जिसका अर्थ होता है मूल्यवान धातुओं की खान.
वैदिक सभ्यता की तरह मितन्नी संस्कृति में भी रथ युद्ध का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रथों में जुतने वाले अश्व यानी घोड़े के प्रशिक्षण पर इस संस्कृति का ग्रंथ इस तरह का दुनिया में सबसे पुराना दस्तावेज माना जाता है. वेदों से भी प्राचीन माने जाने वाले इस ग्रंथ में एक, त्रय और अश्व जैसे कई शब्दों का उल्लेख मिलता है. इस संस्कृति के लोग रथ निर्माण कला में बहुत आगे बढ़ चुके थे. उनके रथ बहुत हल्के होते थे और सुमेरिया सहित अपने समय की दूसरी सभ्यताओं के उलट वे रथों के पहियों में स्पोक का इस्तेमाल करते थे.
यही नहीं, मितन्नी संस्कृति में कुछ स्थानीय देवताओं के अलावा कई ऐसे देवों की भी पूजा होती थी जो वैदिक सभ्यता में भी पूजे जाते थे. उन्होंने 1380 ईसापूर्व में एक प्रतिद्वंदी राजा के साथ एक संधि की थी. इसमें उल्लेख है कि इंद्र, मित्र और नासत्य (अश्विनी कुमार) जैसे देवता मितन्नी लोगों की तरफ से इस संधि के साक्षी थे.
यह एक अद्भुत तथ्य है. इसके आधार पर ही चर्चित लेखक डेविड एंथनी अपनी किताब द हॉर्स, द व्हील एंड लैंगवेज में कहते हैं कि न केवल ऋगवैदिक संस्कृत पश्चिमोत्तर भारत में ऋगवेद की रचना से पहले अस्तित्व में थी बल्कि जिन धार्मिक देवताओं का उल्लेख इसमें है वे भी पहले से ही अस्तित्व में आ चुके थे.
अब सवाल उठता है कि संस्कृत भारत से पहले सीरिया में कैसे आई?
दरअसल संस्कृत जिस भाषा परिवार से निकली है उसका आधार प्रोटो इंडो यूरोपियन नाम की एक आदिम भाषा थी. समय के साथ इस भाषा ने प्रोटो इंडो इरानियन नाम की एक और भाषा को जन्म दिया. इसके नाम से ही जाहिर है कि यह उत्तरी भारत और ईरान के इलाके में विकसित हुई. जानकार मानते हैं कि ईसा से करीब दो हजार साल पहले प्रोटो इंडो इरानियन भाषा को बोलने वाले शुरुआती लोग आज के कजाकस्तान और इसके आसपास के इलाके में रहा करते थे. मध्य एशिया के इस क्षेत्र में बसने वाले इन लोगों के समाज से धीरे-धीरे एक शाखा अलग हुई जिसने प्रोटो इंडो इरानियन छोड़कर शुरुआती संस्कृत में बोलना शुरू किया. इनमें से कुछ लोग तो पश्चिम की तरफ उस इलाके में आ गए जो आज सीरिया है और कुछ लोग पूर्व की तरफ बढ़ते हुए पंजाब के इलाके में पहुंच गए.
डेविड एंथनी का मानना है कि जो लोग पश्चिम की तरफ बढ़े उन्हें शायद सीरिया के क्षेत्र में राज कर रही सत्ता ने अपना सहयोगी बना लिया. रथकला में निपुण ये लोग वही भाषा बोलते थे जो उनके समुदाय के दूसरे साथी पूर्व की तरफ बोल रहे थे और जो बाद में ऋगवेद में दिखाई दी. इन योद्धाओं को मर्य कहा जाता था. यही शब्द इंद्र के सहयोगी योद्धाओं के लिए ऋगवेद में भी मिलता है. माना जाता है कि ऋगवैदिक संस्कृत बोलने वाले इन लोगों ने बाद में विद्रोह कर दिया और मितन्नी राजवंश की स्थापना की. धीरे-धीरे वे स्थानीय संस्कृति में रच बस गए. वे हर्रियन नाम की भाषा बोलने लगे. लेकिन कुछ राजसी नाम, रथ शास्त्र से जुड़ी तकनीकी शब्दावलियां और इंद्र, वरुण, मित्र और नासत्य जैसे देवता उनके जीवन में महत्वपूर्ण बने रहे.
उधर, जो समूह पूर्व की तरफ बढ़ा था और जिसने बाद में ऋगवेद की रचना की, उसे अपनी संस्कृति को बचाए रखने में सफलता मिली. जिस भाषा और धर्म को वे इस महाद्वीप में लाए उसने जड़ें पकड़ लीं. समय के साथ ये जड़ें इतनी मजबूत हो गईं कि संस्कृत इस भूभाग के बड़े हिस्से में बोली जाने लगी. (कोहराम से साभार)