मीडिया में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के अखंड-पाठ से अब लोग कुछ ऊबने लगे हैं.
उन्हें लग रहा है कि मीडिया अति कर रहा है. यही नहीं, वे योगी के महिमामंडन को संदेह के साथ भी देख रहे हैं.
एक बार फिर मीडिया शक़ के दायरे में है और उसकी मुख्य वजह है उसका एकपक्षीय कवरेज.
ये सिलसिला यूपी चुनाव में बीजेपी की जीत से शुरू हुआ था और अब ये योगी के मुख्यमंत्री के रूप में काम करने तक बदस्तूर जारी है.
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क्या है मीडिया का एजेंडा?
ताज्ज़ुब की बात है कि मीडिया को योगी में अचानक इतने सारे गुण नज़र आने लगे हैं मानो वे इस धरती के प्राणी ही न हों. वे उन्हें मसीहा या तारणहार के रूप में पेश करने में जुटे हुए हैं.
इस भक्ति-भाव से पत्रकारिता तो नहीं हो सकती.
ऐसा लगता है कि मीडिया योगी आदित्यनाथ की छवि निर्माण में लगा हुआ है, शायद हिंदुत्व का नया नायक गढ़ रहा है.
मोदी की ही तर्ज़ पर वह योगी को कद्दावर नेता के रूप में गढ़ रहा है. अब ये देखना होगा कि ऐसा जाने-अनजाने में हो रहा है या किसी एजेंडा के तहत.
वैसे देखा जाए तो मीडिया का काम किसी की छवि को बनाने या बिगाड़ने का नहीं है. उसका काम तो जानकारियों को सही संदर्भों के साथ पेश करना होता है.
अगर इसमें कोई घालमेल करता है तो इसका मतलब है कि वह अपनी ज़िम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभा रहा.
कहां ग़ायब हो गईं योगी से जुड़ी नकारात्मक ख़बरें?
ये देखकर हैरत होती है कि मुख्यमंत्री चुने जाने के बाद से योगी के बारे में ऐसी ख़बरें लगभग नदारद हो गई हैं जिनमें उनके व्यक्तित्व के नकारात्मक पहलू उजागर होते हैं.
इसके उलट उनकी उन चीज़ों को भी सकारात्मक बताए जाने का अभियान चल रहा है जिनकी जमकर ख़बर ली जानी चाहिए.
कथित ऑपरेशन रोमियो और बूचड़खानों के ख़िलाफ़ छेड़ा गया अभियान ऐसे फ़ैसले हैं जिन पर मीडिया को तथ्यों से लैस होकर सवाल खड़े करने चाहिए.
मगर अपवादों को छोड़ दें तो मीडिया का अधिकांश हिस्सा तालियाँ पीटने वाला बन गया है जबकि मीडिया का काम चियरलीडर्स का तो बिल्कुल भी नहीं है.
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चमत्कारी पुरुष के तौर पर योगी का प्रचार
पिछले एक हफ़्ते में ही योगी ने बिना कैबिनेट की बैठक किए 50 से ज़्यादा घोषणाएं कर डाली हैं. लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि मीडिया उन घोषणाओं की पोल-पट्टी खोलने के बजाय उन्हें महान शुरुआत के रूप में प्रचारित करने में जुटा हुआ है.
यही नहीं, वे योगी को चमत्कारी पुरुष के रूप में प्रचारित करने में भी जुटे हुए हैं.
बाघ के बच्चे को दूध पिलाते, मगरमच्छ का गला सहलाते या भारी भरकम अजगर अपने कंधे पर लिए योगी की झूठ सी लगने वाली तस्वीरें दिखाने का और कोई मक़सद नहीं हो सकता. ये सब फोटोशॉप का कमाल हैं.
मीडिया में मोदी के भी थे मनगढ़ंत क़िस्से
ऐसा ही कुछ कमाल नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने के समय भी दिखाया गया था.
नरेंद्र मोदी के बाल्यकाल के मनगढ़ंत किस्से मीडिया में खूब फैलाए गए थे. ये भी सच है कि इन तस्वीरों की पोल भी मीडिया ने ही खोली, मगर जिस पैमाने पर वे प्रचारित कर दी गईं, उस स्तर पर उनका खंडन नहीं हुआ.
ज़ाहिर है कि अधिकांश लोग सच्चाई से वाकिफ़ नहीं हो पाए हैं.
इस तरह का पत्रकारीय विवेक एवं प्रतिबद्धता कम ही मीडिया संस्थानों में नजर आ रही है.
सवाल उठता है कि आख़िर मीडिया इस तरह का एकपक्षीय कवरेज क्यों कर रहा है?
क्या ये सब आयोजित-प्रायोजित है या कोई दबाव उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर रहा है?
मीडिया और सत्ता की सहमति
ये तो कई बार महसूस किया जा चुका है कि मीडिया पर सत्ता का दबाव है और वह जैसै एक अघोषित इमरजेंसी झेल रहा है.
इसके भी कई उदाहरण सामने आ चुके हैं कि मीडिया और सत्ता के बीच एक किस्म की सहमति बन चुकी है.
इसीलिए अब वह ऐसा कुछ भी नहीं करता जिससे सरकार और सत्तारूढ़ दल को किसी तरह की परेशानी हो.
इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि मीडिया भी हिंदुत्व लहर की चपेट में आ गया है, उसका भी भगवाकरण हो गया है.
इसलिए ये स्वाभाविक ही है कि वह हिंदुत्व से जुड़े संगठनों एवं नेताओं की छवियों को चमकाने का काम करे.
कहीं टीआरपी का दबाव तो नहीं
ये तो स्वयंसिद्ध है कि मीडिया पर बाज़ार के दबाव काम कर रहे हैं.
ऐसा हो सकता है कि लोगों में फिलहाल योगी के बारे में जानने की जिज्ञासा हो और मीडिया संस्थान उसे पूरा करने की कोशिश कर रहे हों और ये कोशिश अतिरंजित हो गई हो.
टीआरपी, इंटरनेट पर हिट्स एवं पाठकों के फीडबैक से पता कर लिया जाता है कि फ़िलहाल लोग क्या चाहते हैं और फिर उसी तरह की सामग्री परोसी जाती है.
लेकिन लोकप्रियता एवं मुनाफ़े की भूख अगर पत्रकारीय मूल्यों से खिलवाड़ करवाती है, तो ये अनैतिक भी है और जन विरोधी भी.
इसका विरोध होना चाहिए और नियामक संगठनों का ध्यान इस ओर खींचा जाना चाहिए.
डॉ. मुकेश कुमार, टीवी पत्रकार
(बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से साभार - ये लेखक के निजी विचार हैं)