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पश्चिम बंगाल में मुसलमान: तुष्टिकरण या अलगाव

पश्चिम बंगाल में मुसलमान: 
तुष्टिकरण या अलगाव - नेहा दाभाडे


कोलकता में ‘‘लिविंग रियालिटी ऑफ मुस्लिम्स इन वेस्ट बेंगाल’’ शीर्षक रपट जारी करते हुए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहा, ‘‘पश्चिम बंगाल में मुसलमान, गरीब तबके का एक बड़ा हिस्सा हैं। यह तथ्य कि राज्य में मुसलमान, आनुपातिक दृष्टि से अधिक गरीब हैं और उनके जीवन में अपेक्षाकृत अधिक वंचनाएं हैं, इस रपट को सामयिक बनाता है और इस पर व्यवहारिक कदम उठाए जाने की आवश्यकता को रेखांकित करता है’’
यह रपट, पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की स्थिति का जायज़ा लेती है। पश्चिम बंगाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां मुसलमान, आबादी का 27.01 प्रतिशत हैं। सच्चर कमेटी की रपट ने भारत में मुसलमानों की स्थिति का जो वर्णन किया था, वह भयावह था। सच्चर कमेटी की रपट में रोज़गार और शिक्षा सहित अन्य क्षेत्रों में मुसलमानों के साथ भेदभाव और उन्हें अलग-थलग रखे जाने का विस्तार से विवरण दिया गया था। सच्चर कमेटी की रपट को जारी हुए एक दशक से अधिक समय बीत गया है। अतः यह आवश्यक है कि मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति के संबंध में आंकड़ों को राज्यवार अद्यतन किया जाए। अमर्त्य सेन द्वारा जारी रपट ठीक यही करने का प्रयास है।

राजनैतिक पृष्ठभूमि
बंगाल हमेशा से धार्मिक सुधारों और प्रगतिशील, उदारवादी सोच का केंद्र रहा है। इस राज्य पर सीपीआईएम ने लगातार 34 साल शासन किया। यह मानकर चला जाता है कि वामपंथी पार्टियां, विचारधारा के स्तर पर पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष होती हैं और हाशिए पर पड़े वर्गों के प्रति संवेदनशील भी। परंतु सच्चर कमेटी की रपट से यह स्पष्ट हुआ कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के हाल बेहाल हैं। रपट बताती है कि राज्य के मुसलमानों का केवल 16.8 प्रतिशत हिस्सा शहरों में निवास करता है जबकि सामान्य आबादी का 28 प्रतिशत शहरी है (जनगणना 2001)। पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में बाल मृत्यु दर, हिंदुओं की 50 के विरूद्ध 52 थी। वहीं शिशु मृत्यु दर, हिंदुओं के 68 के विरूद्ध 77 थी। जहां राज्य के केवल 57.5 प्रतिशत मुसलमान साक्षर थे, वहीं हिंदुओं के मामले में यह आंकड़ा 72.4 प्रतिशत था।

सन 2011 में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने विधानसभा चुनाव में सीपीएम को पराजित कर शानदार सफलता हासिल की। नंदीग्राम के घटनाक्रम ने राज्य के नागरिकों, विशेषकर मुसलमानों, के मन में ज़मीन और रोज़ी-रोटी को लेकर असुरक्षा का भाव उत्पन्न कर दिया था। टीएमसी की चुनाव में जीत के पीछे मुसलमानों का समर्थन एक महत्वपूर्ण कारक था। यद्यपि पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन के दौरान कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ परंतु इससे इस नतीजे पर पहुंचना अनुचित होगा कि वहां की राजनीति पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष थी और मुसलमानों को समान अवसर उपलब्ध थे। दूसरी ओर, ममता बेनर्जी ने जमायत उलेमा-ए-हिंद की रैलियों में भागीदारी की, मुस्लिम हिजाब पहना और यहां तक कि नमाज़ भी अदा की। परंतु यह सब केवल प्रतिकात्मक था। ममता बेनर्जी के सत्ता में आने के बाद भी, मुसलमानों की स्थिति वही बनी रही जो वामपंथी शासन में थी।

टीएमसी और सीपीएम की मुसलमानों के प्रति नीति के मुख्यतः तीन अंग हैं। पहला, सांप्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण बनाए रखो ताकि हताहतों की संख्या अधिक न हो और ना ही संपत्ति की व्यापक पैमाने पर हानि हो। दूसरा, प्रतीकों की राजनीति करो और चुनावी लाभ पाने के लिए मुस्लिम धार्मिक नेताओं को अपने पक्ष में करो और तीसरा, मुसलमानों को समान अवसर दिलवाने और उनकी वास्तविक उन्नति के लिए कुछ न करो।

आंकड़ों से यह ज्यादा स्पष्ट हो सकेगा कि मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में करने से राजनैतिक दल किस तरह लाभांवित होते हैं। सन 2011 के विधानसभा चुनाव में राज्य विधानसभा की 294 सीटों में से तृणमूल कांग्रेस ने 38.9 प्रतिशत वोट प्राप्त कर 184 सीटें जीतीं। सीपीएम को 30.8 प्रतिशत मत और 40 सीटें मिलीं। कांग्रेस ने 42 सीटें जीतीं और उसे 9.1 प्रतिशत वोट मिले। भाजपा को 4.1 प्रतिशत वोट मिले परंतु वह एक भी सीट नहीं जीत सकी। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने 39.4 प्रतिशत वोट प्राप्त कर 42 में से 34 सीटों पर विजय हासिल की। कांग्रेस ने 9.6 प्रतिशत वोट पाकर चार सीटें जीतीं। सीपीएम और भाजपा को दो-दो सीटें मिलीं और उनके मतों का प्रतिशत क्रमश: 22.7 और 16.84 था। भारत में मुसलमानों की स्थिति का एक व्यापक अध्ययन प्रोफेसर इकबाल अंसारी द्वारा किया गया था। इस काम को पश्चिम बंगाल में प्रतीची इंस्टीट्यूट के साबिर एहमद ने आगे बढ़ाया। इस अध्ययन से पता चलता है कि राज्य के 46 विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमान, आबादी का 50 प्रतिशत या उससे अधिक हैं। सोलह विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमान मतदाताओं का प्रतिशत 40 से 50 के बीच है और 33 क्षेत्रों में 30 से 40 के बीच। इन आंकड़ों से यह साफ है कि ठीक एक तिहाई सीटों पर मुसलमानों का समर्थन, किसी भी उम्मीदवार को विजय दिलवा सकता है। इसके अलावा, 50 अन्य विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमान, आबादी का 20 से 30 प्रतिशत हैं। इन आंकड़ों को नजरअंदाज करना शायद सन 2011 में वाममोर्चे को मंहगा पड़ा। और इन्हीं आंकड़ों से यह साफ है कि पश्चिम बंगाल में विभिन्न पार्टियों के बीच मुसलमानों का समर्थन हासिल करने की होड़ क्यों मची रहती है।

अमर्त्य सेन द्वारा जारी रपट, पश्चिम बंगाल के बढ़ते सांप्रदायिकीकरण की ओर भी इशारा करती है। मुसलमानों की धार्मिक पहचान पर ज़ोर देने और उन्हें एकसार समुदाय बताने से पश्चिम बंगाल-जहां मुसलमानों की खासी आबादी है-में भी उनका दानवीकरण हो रहा है। राज्य का मध्यमवर्गीय शहरी तबका, जिसे भद्र लोगकहा जाता है, का मीडिया और शिक्षा सहित ज्ञान और सूचना के सभी स्त्रोतों पर पूर्ण नियंत्रण है और यही वर्ग राज्य के सार्वजनिक विमर्श को आकार देता है। कुछ क्षेत्रों में हिंदू राष्ट्रवादियों का बढ़ता ज़ोर भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सबब बन रहा है। इस सबसे आरएसएस को पश्चिम बंगाल में अपनी जड़ें मजबूत करने का मौका मिल गया है।

इस संदर्भ में यह रपट आंखें खोलने वाली है। यह रपट 81 सामुदायिक विकासखंडों और 30 नगरपालिका क्षेत्रों के क्रमशः 325 गांवों और 75 वार्डों में किए गए सर्वेक्षण पर आधारित है। रपट इस मामले में अन्य अध्ययनों से थोड़ी अलग है कि वह मुसलमानों को केवल एक एकसार धार्मिक समुदाय के रूप में नहीं देखती। इसमें क्षेत्रीय, भाषागत, पेशागत, व शैक्षणिक स्तर आदि जैसे कारकों का ध्यान भी रखा गया है। यह रपट मुस्लिम महिलाओं के बारे में मुख्यतः मीडिया द्वारा गढ़े गए कई मिथकों का खंडन करती है, जिनमें से एक यह है कि वे दकियानूसी मुल्ला-मौलवियों के कहने पर चलती हैं।

शिक्षा 
जहां तक राज्य के मुसलमानों की शैक्षणिक स्थिति का सवाल है, वह निराशाजनक है परंतु इस अंधेरे में रोशनी की एक किरण है राज्य में लड़कियों की साक्षरता दर में हुई वृद्धि। उदाहरणार्थ, सन 2011 की जनगणना के अनुसार, मुसलमानों में साक्षरता का प्रतिशत 69.5 था। इसी जनगणना के आंकड़े यह बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में साक्षरता के मामले में लैंगिक अंतर 11.1 प्रतिशत था परंतु इस रपट को तैयार करने के लिए किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि अब यह अंतर घटकर 7.8 प्रतिशत रह गया है। उसी तरह, सन 2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर, सामान्य महिलाओं से 2.2 प्रतिशत कम थी परंतु सर्वेक्षण से यह पता चला कि अब ये दोनों दरें बराबर हो गई हैं। ये आंकड़े इस कुप्रचार का ज़ोरदार खंडन करते हैं कि मुसलमान दकियानूसी सोच के चलते लड़कियों को शिक्षा से वंचित रखते हैं। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि राज्य की मुस्लिम आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है। शहरों में रहने वाले मुसलमानों का साक्षरता का प्रतिशत 75.4 है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा 68.3 है। परंतु 17 साल से कम उम्र के बच्चों में लड़कियों की साक्षरता दर, लड़कों से बेहतर है। इसका कारण यह है कि इस आयु तक आते-आते लड़कों को पढ़ाई छोड़कर रोज़ी-रोटी कमाने में जुटना पड़ता है परंतु लड़कियां घरेलू कामकाज करते हुए भी स्कूल जाती रहती हैं। उच्च शिक्षा के मामले में स्थिति ठीक उलट है। इसका कारण यह है कि लड़कियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे विवाह कर अपना घर बसाएं जबकि लड़कों को आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ताकि उनकी आमदनी बढ़ सके।

यह रपट एक अन्य रूढ़िबद्ध धारणा का भी खंडन करती है और वह यह कि मुस्लिम अभिभावक अपने बच्चों को मदरसों में भेजना पसंद करते हैं क्योंकि वे धर्मनिरपेक्ष व आधुनिक शिक्षा के विरूद्ध हैं। सच्चर समिति की रपट में कहा गया था कि चार प्रतिशत से भी कम मुस्लिम बच्चे मदरसों में पढ़ते हैं और इसका कारण भी यह है कि मुस्लिम मोहल्लों में पर्याप्त संख्या में स्कूल नहीं होते।

जीवनयापन
इस रपट में वर्क पार्टिसिपेशन रेट (डब्ल्यूपीआर) को 15-65 वर्ष आयु वर्ग के ऐसे लोगों के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया गया है जो किसी न किसी रोज़गार में हैं। रपट के अनुसार, मुसलमानों का डब्ल्यूपीआर 45 प्रतिशत है। केवल 8.9 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं काम करके धन कमाती हैं। विभिन्न जिलों में डब्ल्यूपीआर में काफी अंतर है। मालदा में 13 प्रतिशत और मुर्शीदाबाद में 21.5 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं कामकाजी हैं और इनमें से अधिकांश बीड़ी बनाने और ज़री का काम करती हैं। पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों में से काम करने वालों का 47 प्रतिशत या तो खेतिहर मज़दूर हैं या गैर-कृषि कार्यों में दैनिक मजदूरी पर काम करता है। केवल 1.55 प्रतिशत ग्रामीण मुसलमान स्कूली अध्यापक हैं और मात्र 1.54 प्रतिशत सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में नियमित रोज़गार में हैं।

आय का स्तर
रपट का सबसे चिंताजनक पहलू है पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की आय से संबंधित आंकड़े। रपट के अनुसार, पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में 80 प्रतिशत मुस्लिम परिवारों की मासिक आय रूपए 5,000 या उससे कम है। यह पांच सदस्यों वाले परिवार के लिए गरीबी की रेखा के बहुत नज़दीक है। ग्रामीण पश्चिम बंगाल के 38.3 प्रतिशत मुस्लिम परिवारों की मासिक आमदनी रूपए 2,500 या उससे कम है। तीन-चैथाई से अधिक मुस्लिम परिवारों के पास खेती की ज़मीन नहीं है। आधे मुस्लिम परिवारों के पास बीपीएल कार्ड या मनरेगा जॉब कार्ड नहीं है। शहरों में ऐसे मुस्लिम परिवारों का प्रतिशत जिनकी मासिक आमदनी रूपए 2,500 या उससे कम है, 23.8 है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि मुसलमानों की आर्थिक स्थिति दयनीय है और यह राज्य की उन्हें समान अवसर उपलब्ध करवाने में विफलता का परिचायक भी है।

नागरिक सुविधाएं
किसी समुदाय के सदस्य किस तरह के मकानों में रहते हैं, इससे भी उस समुदाय की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा लगता है। यह निराशाजनक है कि पश्चिम बंगाल में 59.1 प्रतिशत मुसलमान बांस, पत्तों, फूस, प्लास्टिक, पॉलिथीन, मिट्टी और मिट्टी की कच्ची ईंटों से बने मकानों में रहते हैं। सामान्य आबादी में ऐसे परिवारों का प्रतिशत 47.8 है। जहां सामान्य आबादी का 47.9 प्रतिशत हिस्सा कांक्रीट और पक्की ईंटों के बने मकानों में रहता है वहीं केवल 36.6 प्रतिशत मुसलमान इस तरह के मकानों में रहते हैं। सामान्य आबादी की तुलना में 40 प्रतिशत कम मुस्लिम घरों में नल का पानी आता है। इसी तरह सामान्य आबादी की तुलना में केवल एक-तिहाई मुस्लिम घरों में जलनिकासी की व्यवस्था है।

स्वास्थ्य सुविधाएं
स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच, मानव विकास का एक महत्वपूर्ण सूचकांक है। इस मामले में मुसलमानों की स्थिति दयनीय है। जहां राज्य में प्रति एक लाख आबादी पर औसतन 1.8 अस्पताल हैं वहीं उत्तर दीनजपुर, मालदा और दक्षिण 24 परगना जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में यह आंकड़ा क्रमशः 1.0, 1.41.3 है। इसी तरह, मुस्लिम समुदाय की शिशु मृत्यु दर, हिंदू समुदाय से 23 प्रतिशत अधिक है। आंकड़ों से यह पता चलता है कि जिन स्थानों में अस्पताल नज़दीक हैं वहां मुसलमान अस्पतालों में ही प्रसूति करवाना पसंद करते हैं। इससे इस आम धारणा का खंडन होता है कि दकियानूसीपन के कारण मुसलमान संस्थागत प्रसूति नहीं करवाना चाहते।

निष्कर्ष
यह रपट इस मामले में महत्वपूर्ण है कि यह विश्वशनीय आंकड़ों के माध्यम से मुसलमानों की स्थिति के बारे में कड़वी सच्चाई हमारे सामने लाती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुसलमान, बेहतर शिक्षा, जीविका के साधन और स्वास्थ्य सुविधाएं चाहते हैं और यह उनका अधिकार भी है। राज्य की संवैधानिक और नैतिक जिम्मेदारी है कि वह मुस्लिम समुदाय की अन्य समुदायों के समकक्ष आने में मदद करे। यह रपट राज्य में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले आई है और इससे यह उम्मीद जागी है कि शायद चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार, मुसलमानों को केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने की बजाए उनकी बेहतरी के लिए सार्थक और गंभीर प्रयास करेगी। इसी तरह के प्रयास अन्य राज्यों में भी नागरिक अधिकार संगठनों द्वारा किए जाने चाहिए। इससे अलगाव, भेदभाव और दुष्प्रचार के शिकार मुस्लिम समुदाय की वास्तविक स्थिति समाज और देश के सामने आ सकेगी।

 अनुवाद -एल. एस. हरदेनिया

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